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________________ जैन न्याय के क्षेत्र में तत्त्वबोधविधायनी नामक सन्मतितर्क की टीका के कर्ता अभयदेवसूरि (11वीं शती), प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचनाकार प्रभाचन्द्र (11वीं शती), प्रमाणनयतत्त्वालोक और उसकी स्वोपज्ञ टीका स्याद्वादरत्नाकर के कर्ता वादीदेवसूरि ( 12वीं शती) तथा उसी ग्रन्थ की रत्नाकरावतारिका नामक टीका के रचनाकार आचार्य रत्नप्रभ और प्रमाणमीमांसा के कर्ता आचार्य हेमचन्द्र (12वीं शती) आदि जैनप्रमाणशास्त्र के प्रबुद्ध आचार्य हुए हैं । इन सभी ने दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, अर्चट, प्रज्ञाकरगुप्त, शांतरक्षित, कमलशील आदि बौद्ध आचार्यों और उनके ग्रन्थों का न केवल उल्लेख किया है अपितु उनके ग्रन्थों से उनके मंतव्यों को उद्धृत कर उनकी समीक्षा भी की है । इनके पश्चात् भी जैन न्याय की यह परम्परा यशोविजय, विमलदास आदि के काल तक अर्थात् लगभग 18वीं शती तक चलती रही और जैन आचार्य बौद्ध मन्तव्यों को पूर्व पक्ष के रूप में रखकर उनकी समीक्षा करते रहे। यही नहीं, बीसवीं शती में भी पं. सुखलालजी, पं. दलसुख भाई, डॉ. नथमलजी टाटिया, मुनि जम्बूविजयजी आदि जैन विद्वान् बौद्ध प्रमाणशास्त्र के ज्ञाता रहे हैं। मुनि जम्बूविजयजी ने तो तिब्बती सीखकर द्वादशारनयचक्र जैसे प्राचीन त्रुटितग्रंथ का पुनः संरक्षण किया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि 5वीं शती से लेकर 20वीं शती तक अनेक जैन आचार्य बौद्ध प्रमाणशास्त्र के ज्ञाता और समीक्षक रहे हैं, किन्तु बौद्ध न्याय का विकास भारत में लगभग 11वीं-12वीं शती के बाद अवरुद्ध हो गया । प्रमाणलक्षण बौद्धदर्शन में प्रमाणलक्षण के निरूपण के संबंध में तीन दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं- सर्वप्रथम दिङ्नाग ने अपने ग्रन्थ को प्रमाणसमुच्चय में स्मृति, इच्छा द्वेष आदि को पूर्व अधिगत विषय का ज्ञान कराने वाला होने से प्रमाण का विषय नहीं माना है इसी आधार पर दिङ्नाग के टीकाकार जिनेन्द्रबुद्धि ने प्रमाणसमुच्चय की टीका में प्रमाण को अज्ञात अर्थ का ज्ञापक कहा है । उनके पश्चात् आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाण की परिभाषा देते हुए “प्रमाण" अविसंवादीज्ञानम् कहकर प्रमाण को अविसंवादी ज्ञान कहा है । यद्यपि उन्होंने प्रमाण की यह स्वतंत्र परिभाषा दी है, किन्तु उन्होंने “अज्ञातार्थप्रकाशकोवा” कहकर दिङ्नाग की प्रमाण की पूर्व परिभाषा को भी स्वीकार किया है । बौद्ध परम्परा में प्रमाणलक्षण के संबंध में तीसरा दृष्टिकोण अर्थसारूप्यस्य प्रमाणम्' के रूप में प्रस्तुत किया गया है किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में हमारा विवेचन धर्मकीर्ति तक सीमित है । अतः हम प्रथम एवं द्वितीय प्रमाणलक्षण की ही जैन दृष्टि से समीक्षा करेंगे, क्योंकि ये दोनों लक्षण धर्मकीर्ति को भी मान्य हैं। उनके द्वारा तृतीय वस्तुतः प्रमाणफल के रूप में विवेचित है । धर्मकीर्ति का जैन ज्ञानदर्शन " 189
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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