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________________ उसे परोक्ष प्रमाण का भेद मानते हैं, वहाँ न्याय दर्शन उसे प्रत्यक्ष प्रमाण का एक भेद मानता है। यद्यपि यह अन्तर अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि अकलंक ने तो उसे शब्द संसर्ग से रहित होने पर सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत मान ही लिया था। अपने स्वरूप की दृष्टि से भी प्रत्यभिज्ञान में ऐन्द्रिक प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों का योग होता है अतः वह आंशिक रूप से प्रत्यक्ष और आंशिक रूप से परोक्ष सिद्ध होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों में केवल स्मृति और तर्क ही ऐसे हैं जिन्हें अन्य दर्शनों में प्रमाण की कोटि में वर्गीकृत नहीं किया गया है। न्याय दर्शन प्रमा और अप्रमा के वर्गीकरण में स्मृति और तर्क दोनों को ही अप्रमा अथवा अयथार्थ ज्ञान मानता हैं। यद्यपि अन्नमभट्ट का वर्गीकरण थोड़ा भिन्न है। वे पहले ज्ञान को स्मृति और अनुभव इन दो भागों में वर्गीकृत करते हैं और बाद में अनुभव को यथार्थ और अयथार्थ इन दो भागों में बाँट देते हैं। इस प्रकार वे स्पष्ट रूप से स्मृति को अयथार्थ ज्ञान नहीं मानते हैं, तथापि जहाँ तक तर्क का प्रश्न है वे उसे अयथार्थ ज्ञान में ही वर्गीकृत करते हैं। यद्यपि वे उसे संशय और विपर्यय से भिन्न अवश्य मानते हैं। उन्होंने अयथार्थ ज्ञान के तीन भेद किये हैं : 1. संशय, 2. विपर्यय, और 3. तर्क। इस प्रकार हम देखते है कि न्याय दर्शन तर्क को प्रमाण की कोटि में नहीं रखता है। यद्यपि यह स्वतन्त्र प्रश्न है, कि क्या संशय, विपर्यय और तर्क एक ही स्तर के ज्ञान हैं या भिन्न-भिन्न स्तर के ज्ञान हैं? क्या अयथार्थ ज्ञान का अर्थ भ्रमयुक्त या मिथ्या ज्ञान है? जिन पर आगे विचार करेंगे। चाहे न्याय दर्शन ने तर्क को प्रमाण नहीं माना हो फिर भी वह अपने षोड़श पदार्थों में तर्क को एक स्वतन्त्र स्थान तो देता ही है तथा व्याप्ति स्थापना में तर्क की उपयोगिता को भी निर्विवाद रूप से स्वीकार करता है। यद्यपि भारतीय दर्शनों में सांख्य-योग तथा मीमांसा दर्शन तर्क को 'प्रमाण' मानते हैं, किन्तु उनके तर्क को प्रमाण मानने के सन्दर्भ बिल्कुल भिन्न हैं। वह सन्दर्भ ज्ञान मीमांसा के न होकर भाषा शास्त्रीय एवं कर्मकाण्डीय है। ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में तो वे ही अपनी-अपनी प्रमाणों की मान्यता में तर्क की कोई स्वतन्त्र स्थान नहीं देते हैं। मात्र यही नहीं, मीमांसा दर्शन तो व्याप्ति निश्चय में भी तर्क की उपादेयता को स्वीकार नहीं करता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतीय दर्शन में एकमात्र जैन दर्शन ही ऐसा दर्शन जो तर्क की स्वतन्त्र रूप से प्रमाण की कोटि में रखता है। तर्क शब्द का अर्थ सर्वप्रथम प्रमाण के पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व तर्क के अर्थों की जो विकास यात्रा है, उस पर भी यहाँ विचार कर लेना अपेक्षित है। प्राचीन भारतीय साहित्य में तर्क शब्द का प्रयोग विविध अर्थों में होता रहा है और अर्थों की यह जैन ज्ञानदर्शन 159
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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