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________________ इतना ही नहीं, उन्होंने समग्र नैतिक कथनों के भाषायी विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध किया है कि वे विधि या निषेध रूप में आज्ञासूचक या भावसूचक ही हैं, इसलिए वे न तो सत्य हैं और न तो असत्य । 3. याचनीय - 'यह दो' इस प्रकार की याचना करने वाली भाषा भी सत्य और असत्य की कोटि से परे होती है । 4. प्रच्छनीय - यह रास्ता कहाँ जाता है ? आप मुझे इस पद्य का अर्थ बतायें? इस प्रकार के कथनों की भाषा प्रच्छनीय कही जाती है । चूँकि यह भाषा भी किसी तथ्य का विधि-निषेध नहीं करती है, इसलिए इसका सत्यापन सम्भव नहीं है । 5. प्रज्ञापनीय अर्थात् उपदेशात्मक भाषा - जैसे चोरी नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए आदि । चूँकि इस प्रकार के कथन भी तथ्यात्मक विवरण न हो कर उपदेशात्मक होते हैं, इसलिए ये सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते । आधुनिक भाषा विश्लेषवादी दार्शनिक नैतिक प्रकथनों का अन्तिम विश्लेषण प्रज्ञापनीय भाषा के रूप में ही करते हैं और इसलिए इसे सत्यापनीय नहीं मानते हैं, उनके अनुसार वे नैतिक प्रकथन जो बाह्य रूप से तो तथ्यात्मक प्रतीत होते हैं, लेकिन वस्तुतः तथ्यात्मक नहीं होते; जैसे- चोरी करना बुरा है, उसके अनुसार इस प्रकार के कथनों का अर्थ केवल इतना ही है कि तुम्हें चोरी नहीं करना चाहिए या चोरी के कार्य को हम पसन्द नहीं करते हैं । यह कितना सुखद आश्चर्य है कि जो बात आज के भाषा - विश्लेषक दार्शनिक प्रस्तुत कर रहे हैं, उसे सहस्राधिक वर्ष पूर्व जैन विचारक सूत्र रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं । आज्ञापनीय और प्रज्ञापनीय भाषा को असत्य - अमृषा कहकर उन्होंने आधुनिक भाषा - विश्लेषण का द्वार उद्घाटित कर दिया था । 6. प्रत्याख्यानीय - किसी प्रार्थी की माँग को अस्वीकार करना प्रत्याख्यानीय भाषा है। जैसे, तुम्हें यहाँ नौकरी नहीं मिलेगी अथवा तुम्हें भिक्षा नहीं दी जा सकती। 7. इच्छानुकूलिका - किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुकूलिका भाषा है । तुम्हें यह कार्य करना ही चाहिए, इस प्रकार के कार्य को मैं पसन्द करता हूँ । मुझे झूठ बोलना पसन्द नहीं है। आधुनिक नीतिशास्त्र का संवेगवादी सिद्धान्त भी नैतिक कथनों को अभिरुचि या पसन्दगी का एक रूप बताता है, और उसे सत्यापनीय नहीं मानता है । 8. अनभिग्रहीत - ऐसा कथन जिसमें वक्ता अपनी न तो सहमति प्रदान करता है और न असहमति, अनभिग्रहीत कहलाता है । जैसे, 'जो पसन्द हो, वह कार्य करो", "जो तुम्हें सुखप्रद हो, वैसा करो" आदि । ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते। इसलिए इन्हें भी असत्य - अमृषा कहा गया है 1 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 154
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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