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________________ प्राप्त होने पर ज्ञाता भी नहीं है, इसलिए यह ज्ञान अप्रतिपाति ज्ञान है और इसमें न कभी कमी रहती है। यह सभी कालों के लोक में स्थित सभी मूर्त-अमूर्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानता है। केवलज्ञान का विषय सामान्यतया मति, श्रुत, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान का विषय रूपी द्रव्य ही होते हैं। मनःपर्यायज्ञान का विषय भी सूक्ष्म रूपी द्रव्य ही है क्योंकि वह भी मूर्त रूपी द्रव्य की सूक्ष्म मनोवर्गणाओं को ही जानता है, जबकि केवलज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त अर्थात् रूपी और अरूपी दोनों द्रव्य हैं। अतः केवलज्ञान पुद्गल के अतिरिक्त आत्मा, धर्म, अधर्म और आकाश ऐसी पांचों अस्तिकायों को भी काल सहित छहों द्रव्यों को भी जानता है। उमास्वामि ने तत्त्वार्थसूत्र में केवलज्ञान का विषय सभी द्रव्यों की लोक और अलोकवर्ती सभी पर्यायों को भी जानता है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में केवलज्ञान का विषय-क्षेत्र बताते हुए कहा गया है कि 'सर्वद्रव्येषु वा सर्वपर्यायेषु' । वह लोक-अलोक में स्थित सर्वद्रव्यों की सर्वत्रैकालिक पर्यायों (अवस्थाओं) को जानता है, अतः उसका विषय क्षेत्र की अपेक्षा लोक और अलोक दोनों ही है। साथ ही, द्रव्यों की अपेक्षा वह लोक-अलोक के सभी द्रव्यों को और भाव एवं काल की अपेक्षा से उनकी त्रैकालिक पर्यायों को भी जानता है। अतः वह केवलज्ञान त्रैकालिक ज्ञान है, अतः वह भूत, वर्तमान और भविष्य- त्रिकालों को जानता है। नन्दीसूत्र (33) के अनुसार जो ज्ञान सर्वद्रव्यों, सर्वक्षेत्रों, सर्वकालों और सर्वभावों (पर्यायों या अवस्थाओं) को जानता है- वह केवलज्ञान है। किन्तु केवलज्ञान के विषय के सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द का मन्तव्य थोड़ा भिन्न है, वे नियमसार गाथा 159 में लिखते हैं कि व्यवहारनय से तो केवलज्ञानी सबको जानते और देखते हैं, किन्तु निश्चयनय से तो केवलज्ञानी अपनी आत्मा को ही जानते और देखते हैं। केवलज्ञान की दशा में आत्मा निरावरण और शुद्ध होता है। अतः सभी कुछ जो आत्मा में प्रतिबिम्बित होता है, केवलज्ञानी उसे जानता और देखता है। इसी अपेक्षा से यह कहा जाता है कि केवली सब कुछ जानता और देखता है, केवली सर्वद्रव्यों की सभी त्रैकालिक पर्यायों को जानता और देखता है - ऐसा एकान्ततः मानने पर अनेक विसंगतिया भी उत्पन्न होती है और जैनदर्शन पुरूषार्थवादी से नियतिवादी बन जाता है। यदि केवली सभी द्रव्यों की त्रैकालिक पर्यायों को जानता है ऐसा माने तो उसके ज्ञान की अपेक्षा से समग्र भविष्य भी नियत होगा, अतः उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की कोई सम्भावना नहीं रहेगी। अतः हमें नियतिवाद या क्रमबद्धपर्यायवाद मानना होगा। किन्तु आगमिक दृष्टि से ऐसा नहीं है। भगवतीसूत्र में जब यह प्रश्न उठाया गया कि केवली क्या जानता है और जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान 126
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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