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________________ श्रुतज्ञान के भेद किसी भी शब्द का श्रवण करने पर वाच्य-वाचकभाव संबंध के आधार से जो अर्थबोध की जो उपलब्धि होती है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान भी मन और इन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होता है, किन्तु फिर भी इसके उत्पन्न होने में इन्द्रियों की अपेक्षा मन की मुख्यता होती है, अतः इसे मन का विषय माना गया है या श्रुतज्ञान भी मतिज्ञान की तरह परोक्ष है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है इसीलिए सूत्रकार ने मतिज्ञान के पश्चात् श्रुतज्ञान का वर्णन किया है। नन्दीसूत्र में श्रुतज्ञान के चौदह भेदों का नामोल्लेख किया गया है। इस आधार पर श्रुतज्ञान चौदह प्रकार का भी है। जैसे 1. अक्षरश्रुत 2. अनक्षरश्रुत 3. संज्ञिश्रुत 4. असंज्ञिश्रुत 5. सम्यक्श्रुत 6. मिथ्याश्रुत 7. सादिकश्रुत 8. अनादिकश्रुत 9. सपर्यवसितश्रुत 10. अपर्यवसितश्रुत 11. गमिकश्रुत 12. अगमिकश्रुत 13. अंगप्रविष्टश्रुत 14. अनंगप्रविष्टश्रुत। परम्परागत दृष्टि से श्रुतज्ञान आगमज्ञान है किन्तु श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा का कथन इससे भिन्न है। उनके अनुसार मतिज्ञान 'पर' वस्तु का ज्ञान या पदार्थ-ज्ञान है, क्योंकि वह इन्द्रियाधीन है, उनके विषय वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि है। पुनः मन की अपेक्षा से भी वह बौद्धिकज्ञान है, विचारजन्य है, अतः भेदरूप है। फिर भी मतिज्ञान के समान श्रुतज्ञान को इन्द्रिय या बुद्धि की अपेक्षा नहीं है, वह शाश्वत सत्यों का बोध है। वे लिखते हैं कि "श्रुतज्ञान इन्द्रिय, मन, बुद्धि की अपेक्षा से रहित स्वतः होने वाला निज का ज्ञान है अर्थात् स्व स्वभाव का ज्ञान है"। श्रुतज्ञान स्वाध्याय रूप है और स्वाध्याय का एक अर्थ है स्व का अध्ययन या स्वानुभूति। यदि श्रुतज्ञान का अर्थ आगम या शास्त्रज्ञान लें, तो भी वह हेय, ज्ञेय या उपादेश का बोध है, इस प्रकार वह विवेक-ज्ञान है। विवेक अन्तःस्फूर्त है। वह उचित-अनुचित का सहज बोध है। निष्कर्ष यह कि मतिज्ञान पराधीन है जबकि श्रुतज्ञान स्वाधीन है। इस प्रकार आदरणीय लोढ़ाजी ने आगमिक आधारों को मान्य करके भी श्रुतज्ञान की एक नवीन दृष्टि से व्याख्या की है। अवधिज्ञान जैन दर्शन में पंच ज्ञानों में अवधि, मनःपर्ययों और केवलज्ञान- ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है। अवधिज्ञान शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, सीमित ज्ञान। सीमित ज्ञान होते हुए भी यह प्रत्यक्ष ज्ञान है, क्योंकि इस ज्ञान में आत्मा, मन एवं इन्द्रियों पर निर्भर नहीं रहता है, अतः इसे आत्मिक प्रत्यक्ष अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान भी कहते हैं। केवलज्ञान या सर्वज्ञ के ज्ञान की अपेक्षा इसका विषय एवं क्षेत्र सीमित होने के कारण ही उसे अवधिज्ञान कहते हैं। षद्रव्यों में यह लोक में स्थित मात्र जैन ज्ञानदर्शन 121
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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