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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण इसका ज्वलन्त प्रमाण है । उनके प्रधान मार्गानुसारी शिष्य प. पू. मुनिराज सुधासागरजी महाराज के अपने दादागुरु के लिए किये गये प्रभावना-प्रयत्न इसके साक्षी हैं । आचार्य ज्ञानसागरजी का व्यक्तित्व बहुआयामी था । धर्माचरण एवं तप में वे एक उदाहरण के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं । अपने ही दीक्षित शिष्य को (आचार्य विद्यासागरजी को) आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर स्वयं उनसे अपनी समाधि सम्पन्न कर उन्होंने विनय तप की प्रकृष्टता को सिद्ध किया था । वे प्रखर प्रज्ञापुञ्ज एवं संघ के कठोर अनुशासनप्रिय थे। ज्ञान एवं क्रिया की एकात्मता उनके जीवनकाल के हर पल में विद्यमान रही । जन्मभूमि राजस्थान की माटी ने अपनी प्रकृति के अनुकूल ही उन्हें मोक्षमार्ग में वीरत्व प्रदान किया था । वे जिनवाणी के अनन्य भक्त के रूप में अपने नाम को सार्थक बनाने में सफल हुए थे । साहित्य सृजन उनकी जन्म-जात प्रतिभा थी । वे शब्दशास्त्र के सारस्वत पुरोधा थे । अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग कर उन्हें प्रसिद्ध करने में उनकी महती रुचि थी । शब्द के विभिन्न अर्थो का प्रयोग और व्युत्पत्ति-वैचित्र्य हेतु वे एकछत्र रूप में मान्य हैं । वर्तमान में संस्कृतभाषा की श्रेष्ठ सुमधुर, ललित एवं आत्महितपरक जिनागमानुकूल काव्य-रचना कर उन्होंने चमत्कार ही किया है । वे अधुनातन युग के धनञ्जय हैं जिन्हें भाषा, साहित्य, व्याकरण, काव्य, अलङ्कार, छन्द, रस, न्याय, अनेकान्त, दर्शन, आचार, अष्टांग निमित्त एवं मंत्रशक्ति का सम्मिलित मूर्तिमान स्वरूप कहना अतिशयोक्ति न होगी । वे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी थे । साधुसंघों हेतु ज्ञानदान का महनीय कार्य उन्होंने सम्पादित किया था । आचार्य शान्तिसागरजी एवं वीरसागरजी महाराज की सेवा का फल उन्हें जीवन सफलता हेतु मिला था । वे दृढ़ विचारशील, स्वभाव से ही परोपकारी एवं धर्मप्रभावक थे। सन् 1952 में प. पू. आचार्य वीरसागरजी महाराज के संघ के साथ ब्र. भूरामल शास्त्री के रूप में उनका मैनपुरी आगमन हुआ था । वे अनेकान्त के सफल प्रस्तोता के रूप में प्रसिद्ध हैं । एकान्त का निरसन कर समीचीन आर्षमार्ग की प्रतिष्ठा उन्हें प्रिय थी । वे नय विशारद थे, स्यावाद शैली का उत्कृष्ट मानदण्ड उन्होंने स्थापित किया था । उनके व्यक्तित्व को प्रकट करने हेतु अनायास रचित उनकी प्रस्तुत पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं - "श्रीमान् श्रेष्टिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं । वाणीभूषण वर्णिनं घृतवरीदेवी च यं धीचयं ।" (जयोदय प्रत्येक सर्गान्त) अर्थात् वे भूर एवं अमल (विशिष्ट निर्मल व्यक्तित्व के धनी), (वाणीभूषण उपाधि से युक्त होना सार्थक था), वाणी रूपी आभूषण के धारक अथवा जिनवाणी में शोभायमान थे। वे चतुर्भुज श्रेष्ठी एवं घृतवरी देवी के पुत्र थे । यहाँ अनायास ही विलक्षण अर्थ सम्भावित है । चतुर्भज अर्थात् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप द्रव्य के स्वचतुष्टय की स्थापना के साथ ही वे वृतवरी अर्थात् घृतान्वेषी गोपिका के समान अर्पित-अनर्पित (मुख्य-गौण) यानी मथानी की रस्सी के एक छोर को आकर्षित कर अन्य को शिथिल करने की पद्धति के समान नयों की सापेक्षता से अनेकान्त प्रमाण को धारण करनेवाली सरस्वती के पुत्र थे । स्वचतुष्टय
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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