SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 14 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण "भावाणं पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यविकल्परूपं जीवाजीवद्रव्य जीवपुद्गल संयोग परिणामोत्पन्ना स्त्रवादिक पदार्थसप्तकं चेत्युक्त लक्षणानां भावानां जीवादिनवपदार्थानां । इदं तु नवपदार्थ विषयभूतं व्यवहारसम्यक्त्यं । किं विशिष्टं ? शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य छद्मस्थावस्थायां साधकत्वेन बीजभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वं क्षायिकसम्यक्त्व बीजभूतं । आगे वे लिखते हैं, "अत्र यद्यपि साध्यसाधनभावज्ञापनार्थं निश्चयव्यवहारद्रवं व्याख्यातं तथापि नव पदार्थ विषयरूपस्य व्यवहार मोक्षमार्गस्यैव मुख्यत्वमिति भावार्थः।" अर्थ - यद्यपि यहाँ साध्यसाधन भाव के परिज्ञान के लिए निश्चय-व्यवहार द्वय का व्याख्यान किया तथापि नवपदार्थ जिसके विषय हैं वह व्यवहार मोक्षमार्ग मुख्य है । यह बात तो प्रसिद्ध ही है कि साधनपूर्वक ही साध्य होता है । अत: आचार्य ज्ञानसागरजी ने व्यवहार को नीचे होकर रहना लिखा है उसका तात्पर्य महत्व की न्यूनता नहीं है अपितु निचली भूमिका, पूर्व अवस्था, साधनरूपता अथवा अपरम भाव से है । आचार्य महाराज ने निश्चय को राजा की भाँति सम्हालनेवाला तथा व्यवहार को मन्त्री की भांति कर्मकर कहा है यह कथन भी संगत ही हैं । क्योंकि मन्त्री सहायक के रूप में राजा का कार्य करता ही है । व्यवहार नय की दृष्टि में सारी हलचल होती है । उदाहरणार्थ व्यवहार मोक्षमार्ग मन-वाणी-शरीर की प्रवृत्ति रूप ही तो है। अट्ठाईस मूलगुण पालन, व्रत, समिति ग्रन्थ पठन, तीर्थयात्रा, जाप्य आदि सब आत्मा के अभेद अनुभव के लिए ही है। आत्मानुभव रूप राज्य की सम्हाल ही तो निश्चय नय रूपी राजा का विषय है । मोक्षमार्ग का प्रवृत्ति रूप कार्य व्यवहार रूपी मंत्री का है । जैसे बिना मंत्री के राज्य का अस्तित्व नहीं है वैसे ही बिना व्यवहार के निश्चय का सद्भाव नहीं है । आचार्य ज्ञानसागरजी ने निश्चय नय को द्रव्यार्थिक एवं सामान्यग्राही तथा व्यवहार को पर्यायार्थिक और विशेष का कथन करने वाला उल्लिखित किया है इसकी पुष्टि हेतु निश्चय-व्यवहार की पूर्व में लिखित आगमोक्त परिभाषायें दृष्टव्य हैं । द्रव्य और सामान्यग्राही का सारांश यह है कि यह द्रव्य के मूल और सदाकाल स्थायी अंतस्तत्व को विषय करता है जैसे कि एक्स-रे का फोटो । शरीर के बाहरी अवयव बाल, खाल, अस्थि, वर्ण, आकार, बाह्य इन्द्रियों को न ग्रहण कर मात्र अन्तरंग का चित्रण ही एक्स-रे का कार्य है उसी प्रकार शरीर, गुणस्थान, मार्गणास्थान, कर्मबन्ध, जन्म-मरण आदि से परे जो आत्मा सामान्य का दर्शन करता है वह निश्चय नय है । इसी दृष्टि में तो पर्याय अथवा विशेष है ही नहीं । व्यवहार नय स्टुडियो के फोटो के समान कार्यकर है । चेहरा / मोहरा आदि बाहरी रूप को जैसे विशेष विशेषकर चित्रण करता है इसी प्रकार ही व्यवहार नय जीव को शरीर रूप कर्ता, भोक्ता, गोरा, काला, मनुष्य, दुःखी, सुखी, जन्म-मरण, शील आदि अने पर्यायों सहित उसी रूप में देखता है । कहा भी है - ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥स. प्रा. 32॥
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy