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________________ 8 आशय है कि कर्ता-कर्म- क्रिया तीनों एक वस्तु रूप हैं। जीव राग-द्वेष का भी परिणमन करने से कर्त्ता है तथा शुद्ध वीतराग भाव का भी । दोनों प्रकार के भावों का कर्त्ता एक नय से नहीं हो सकता । दो नय चाहिए । वे दोनों ही निश्चय नय हैं । दोनों के विषय विरुद्ध हैं । अतः वे शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय ही हो सकते हैं । 1 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण आ. अमृतचन्द्रजी ने निश्चय नय से अपने भावरूप परिणमन करनेवाले को कर्त्ता कहा यतः जीव का परिणमन शुद्ध एवं अशुद्ध दोनों रूप से होता है अतः आचार्य की दृष्टि में दोनों को निश्चय नय के रूप में मान्यता प्राप्त है । आ. जयसेनजी ने तात्पर्यवृत्ति में स्पष्ट वर्णन किया भी है । परमार्थ की दृष्टि से अंशुद्ध निश्चय नय भी व्यवहार ही है। यः परिणमति स कर्त्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥51॥ कलश 7. व्यवहार नय ऊपर कह आये हैं कि जो भेद और उपचार से व्यवहार करता है वह व्यवहार नय है । साथ ही इसका विषय अनुपचार भी है जैसा कि इसके भेद-प्रभेदों से प्रकट है । गुण और गुणी में भेद करना इसका कार्य है तथा भेद में अभेद की सिद्धि करना (उपचार) भी इसका कार्य है । जैसे जीव और अजीव (पुद्गल) में भेद है किन्तु यह उनको एक कहता है यथा 2. " पराश्रितो व्यवहारः " इस कथन के अनुसार यह नय पर के आश्रय से प्रवृत्ति करता है । परद्रव्यों द्रव्यकर्म, शरीर परिग्रहादि नोकर्म को तथा उनको सम्बन्ध से घटित कार्यों को जीव का मानता है । जीव कर्म करता है, जन्म-मरण करता है, संसारी है, मूर्तिक है, पौद्गलिक कर्मों का भोक्ता है, बद्ध है, स्पष्ट है आदि वर्णन करता है । इस नय को आगमभाषापेक्षया पर्यायार्थिक नय कहते हैं । यह द्रव्य को नहीं देखता, पर्याय को ही विषय करता है । इस नय को भी दो भेदों में विभक्त किया जा सकता है । 1. स्वभाव व्यञ्जन पर्यायार्थिक नय, 2. विभाव व्यञ्जन पर्यायार्थिक नय । 3. 4. "ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को ।" (समयसार 27) व्यवहार नय देह और जीव को एक कहता है । 1. अनुपचरित शुद्ध सद्भूत व्यवहार उपचरित अशुद्ध सद्भूत व्यवहार हैं । अन्य दृष्टि से व्यवहार के संक्षेप में निम्नांकित 4 भेद हैं - अनुपचरित असद्भूत व्यवहार उपचरित असद्भूत व्यवहार 1 जैसे जीव के केवलज्ञान आदि गुण हैं जैसे जीव के मतिज्ञान आदि विभाव के गुण - - 1 संश्लेषात्मक शरीरादि पदार्थ जीव के हैं । संश्लेष संबंध रहित पुत्र, मित्र, गृहादि जीव के हैं।
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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