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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७ ६७५ भव्य (कर्म-पुद्गलों) की उदीरणा करता है, किन्तु अनुत्थान आदि के द्वारा उदीरणा नहीं करता।" उदीरक पुरुषार्थ के दो रूप हैं। कर्म की उदीरणा करण के द्वारा होती है। करण का अर्थ है-योग। योग तीन प्रकार के हैं-(१) काय व्यापार, (२) वचन व्यापार और (३) मन व्यापार । उत्थान आदि इन्हीं के प्रकार हैं। योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है। शुभ योग तपस्या है, सत्यवृत्ति है। वह उदीरणा का हेतु है। उदीरणा द्वारा लम्बे समय के बाद तीव्र भाव से उदय में आने वाले कर्म तत्काल और मन्द भाव से उदय में आ जाते हैं। इससे आत्मा शीघ्र उज्ज्वल बन जाती है। क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्ति अशुभ योग है। उससे भी उदीरणा होती है, पर आत्म-शुद्धि नहीं होती, पाप कर्मों का बन्ध होता है। उदीरणा उदयावलिका के बर्हिभूत कर्म पुद्गलों की ही होती है। उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म पुद्गलों की उदीरणा नहीं होती। उदीरणा अनुदीर्ण कर्मों की ही होती है। अनुदित कर्मों की उदीरणा तप के द्वारा सम्भव है। यहाँ प्रश्न उठता है क्या उदीरणा सभी कर्मों की सम्भव है ? कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक निकाचित और दूसरे दलिक। निकाचित उन कर्मों को कहते हैं जिनका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता। दलिक उन कर्मों को कहते हैं जिनका विपाक अन्यथा ही हो सकता है। इसी आधार पर कर्म के अन्य दो भेद मिलते हैं-(१) सोपक्रम और (२) निरूपक्रम । जो कर्म उपचार-साध्य होता है वह सोपक्रम है। जिसका कोई प्रतीकार जहीं होता, जिसका उदय अन्यथा नहीं हो सकता वह निरूपक्रम है। " ऊपर में एक जगह ऐसा वर्णन आया है कि तप निकाचित कर्मों का भी क्षय करता है। यह एक मत है। दूसरा मत यह है कि निकाचित कर्मों की अपेक्षा जीव परवश १. वही गोयमा ! तं उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरियेण वि, पुरिसक्कारपरक्कमेण वि अणुदिण्णं उदीरणाभवि यक्कम उदीरेइ; णो तं अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरिक्कमेण अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ। २: देखिए पृ० ६१३
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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