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________________ ४७० कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं- "जीव अध्यवसाय से पशु, नरक, देव, मनुष्य इन सभी पर्याय-भावों और अनेकविध पुण्य-पाप को करता है ।" ध्यान के विषय में कुछ बातें नीचे दी जाती हैं : वाचक उमास्वाति के अनुसार- एकाग्ररूप से चिन्ता का निरोध करना ध्यान है'। इसका भावार्थ है एक विषय में चित्त निरोध । आचार्य पूज्यपाद ने अपनी टीका में लिखा है- " अग्न' का अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र है वह एकाग्र कहलाता है । नाना पदार्थों का अवलम्बन लेने से चिन्ता परिस्पन्दवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखों से हटा कर एक अग्र अर्थात् एकमुख करना एकाग्रचिन्तानिरोध कहलाता है । यहाँ प्रश्न उठता है निरोध अभावरूप होने से क्या खर-श्रृंग की तरह ध्यान असत् नहीं होगा ? इसका समाधान इस प्रकार है- अन्य चिन्ता की निवृत्ति की अपेक्षा वह असत् है और अपने विषय की प्रवृत्ति की अपेक्षा सत् | निश्चल अग्निशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है ।" चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है।" ... 1 दुःख रूप अथवा पीड़ा पहुंचाने रूप ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं । क्रूरता रूप ध्यान रौद्रध्यान है' । अहिंसा आदि भावों से युक्त ध्यान धर्मध्यान है" । मैल दूर हुए स्वच्छ वस्त्र की तरह शुचिगुण से युक्त ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं । १. २. तत्त्वा० ६.२७ : समयसार : बंध अधिकार: २६८ : सव्वे करेइ जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरयिए । देवमणुये य सव्वे पुण्णं पापं च णेयविहं । । ३. तत्त्वा० ६.२७ सर्वार्थसिद्धि ४. वही ६.२१ सर्वार्थसिद्धि : चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् ६. ५. वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि : ७. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ८. ऋतं दुःखम्, अर्दनमर्तिर्वा, तत्र भवमार्तम् । वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि : नव पदार्थ रुदः, क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि : धर्मादनपेतं धर्म्यम् वही ६.२८ सर्वार्थसिद्धि : शुचिगुणयोगाच्छुक्लम्
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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