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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) ४४३ सर्व सावद्य कार्य आस्रव हैं ४८. बुरे-बुरे कार्य, बुरे-बुरे व्यापार सब जीव के ही व्यापार हैं । वे जिन भगवान की आज्ञा के बाहर के कार्य हैं और सभी आस्रव-द्वार हैं। संज्ञाएँ आस्रव हैं मोहकर्म के उदय से जीव की चार संज्ञाएँ होती हैं। ये पाप कर्मों को खींच २ कर उन्हें ग्रहण करती हैं। पाप कर्मों के ग्रहण की हेतु होने से संज्ञाएँ आस्रव हैं। ये जीव के लक्षण-परिणाम हैं । ५०. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम-इन सब के निरवद्य व्यापार से जीव के पाप कर्म लगते हैं। ये आस्रव-द्वार भी जीव हैं। उत्थान, कर्म आदि आस्रव हैं (गा० ५०-५१) ५१. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम इनके निरवद्य व्यापार से जीव के पुण्य कर्म लगते हैं। ये आस्रव-द्वार भी जीव हैं। ५२. संयम, असंयम, संयमासंयम-ये क्रमशः संवर, आस्रव और संवरास्रव द्वार हैं। इसमें जरा भी शंका नहीं है। संयम, असंयम, संयमासंयम आदि तीन-तीन बोल संवर, आस्रव और संवरास्रव हैं (गा० ५२-५५) इसी तरह व्रती, अव्रती और व्रताव्रती तथा प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी को समझो। इसी तरह पण्डित बाल और बालपण्डित तथा सुप्त जाग्रत और सुप्तजाग्रत को समझो। ५४. इसी तरह संवृत्त, असंवृत्त और संवृत्तासंवृत्त तथा धर्मी धर्मार्थी, धर्म व्यवसायी के तीन-तीन बोलों को समझो। ५५. ये सभी बोल संवर और आस्रव हैं यह अच्छी तरह पहचानो२ | जो आस्रव को अजीव मानते हैं वे पूरे मूर्ख और अज्ञानी हैं।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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