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________________ २४० नव पदार्थ में प्रयुक्त मन, वचन और काय के योग अशुभ । संयति साधुओं को अशनादि देने से संयम का पोषण होता है। संयम का पोषक होने से संयति-दान जिन-आज्ञा में है और निरवद्य कार्य है। उसमें प्रवृत्ति शुभ योग रूप है और उससे पुण्य का बंध होता है। अन्य दानों से असंयम का पोषण होता है। उनमें जिन-आज्ञा नहीं । वे सावध कार्य हैं। उनमें प्रवृत्त होना अशुभ योग रूप है और उससे पाप का बंध होता है। ___ आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं : "शुभ परिणामनिवृत्त योग शुभ है और अशुभ परिणामनिवृत्त योग अशुभ । शुभ-अशुभ कर्मों के कारण योग शुभ या अशुभ नहीं होते। यदि ऐसा हो तो शुभ योग ही न हो, क्योंकि शुभ योग को भी ज्ञानावरणादि कर्मों के बंध का कारण माना है। श्रुतसागरी तत्त्वार्थवृत्ति में इतना विशेष है: "शुभाशुभ कर्म के हेतु मात्र से यदि योग शुभ-अशुभ हो तो संयोगी केवली के भी शुभाशुभ कर्म का प्रसंग उपस्थित होगा। पर वैसा नहीं होता । पुनः शुभ योग भी ज्ञानावरणादि कार्यों के बंध का कारण होता है। यथा किसी ने कहा-'हे विद्वन् ! तुम उपवासी हो अतः पठन मत करो; विश्राम लो।' हित परिणाम से ऐसा कहने वाले का चित्त अभिप्राय होता है-अभी विश्राम लेने पर वह बाद में अधिक तप और श्रुताध्ययन कर सकेगा। उसके परिणाम विशुद्ध होने से तप और श्रुत का वर्जन करने पर भी वह अशुभाश्रव का भागी नहीं होता। 'आप्त मीमांसा' में कहा भी है-स्व और पर में उत्पन्न होने वाला सुख-दुःख यदि विशुद्धिपूर्वक है तो पुण्याश्रव होगा, यदि संक्लेशपूर्वक हैं तो पापाश्रव होगा।" १. सर्वार्थसिद्धि ६.३ टीका : कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ? शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिवृत्तश्चाशुभः । न पुनः शुभाशुभकर्मकारणत्वेन। यद्येवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात् शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात्। श्रुतसागरी वृत्ति ६.३ : न तु शुभाशुभकर्महेतुमात्रत्वेन शुभाशुभौ योगौ वर्तते । तथा सति सयोगकेवलिनोऽपि शुभाशुभकर्मप्रसङ्ग स्यात्, न च तथा । ननु शुभयोगोऽपि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुर्वर्तते। यथा केनचिदुक्तम्-'भो विद्वन्, त्वमुपोषितो वर्तसे तेन त्वं पठनं मा कुरुविश्रम्यताम्' इति, तेन हितेऽप्युक्तेऽपिज्ञानावरणादि प्रयोक्तुर्भवति, तेन एक एवाशुभयोगोऽङ्गीक्रियताम्, शुभयोग एव नास्ति; सत्यम्; स यदा हितेन परिणामेन पठन्तं विश्रमयति तदा तस्य चेतस्येवेमभिप्रायो वर्तते-'यदि इदानीमयं विश्राम्यति तदाऽग्रे अस्य बहुतरं तपःश्रुतादिकं भविष्यति' इत्यभिप्रायेण तपःश्रुतादिकं वारयन्नपि अशुभास्रवभाग न स्यात् विशुद्धिभाक्परिणामहेतुत्वादिति । तदुक्त्म्-"विशुद्धिसङ्क्लेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सुखासुखम् । पुण्यपापासवो युक्तो न चेद् व्यर्थस्तवार्हतः।। (आप्त मीमांसा श्लोक ६५)
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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