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________________ महामन्त्र गमोकार अर्थ, व्याख्या (पदक्रमानुसार) 8 125 8 लगाव नहीं होता हैं। उनका संसार होता ही नहीं है अतः उनकी समस्त चित्तवृत्तियां स्वाध्याय और नये-नये चिन्तन में लगी रहती है। आज का अध्यापक, प्राध्यापक एवं प्राचार्य प्रायः यान्त्रिक चेतना से अनुवालित होता है और व्यापार बुद्धि से ही पाठयक्रममूलक अध्यापन करता है। उसका अपने विषय के प्रति प्रायः तादात्म्य या सगात्मक सम्बन्ध नहीं रहता है। वह केवल 'अनिवार्य कार्य भार' तक ही सीमित रहता है। अपवाद स्वरूप कतिपय विद्वान ऐसे भी होते हैं जो अद्भुत प्रतिभा के धनी होते हैं, निरन्तर स्वाध्याय और अनुसंधान करते रहते हैं। परन्तु वे गृहस्थ होते हैं एवं संसार से बद्ध होते हैं अतः उनका अधिकांश समय ज्ञान-साधना में व्यतीत नहीं होता है। उनकी प्रतिभा का पूर्ण विकास सम्भव नहीं हो पाता है। उपाध्याय विशुद्ध गुरु होते हैं। उनमें ज्ञान और चारित्र्य की अगाध गुरुता रहती है। वे परम निर्लोभी होते हैं। कभी व्यापार भाव से विद्यादान नहीं करते हैं। ऐसे परम गुरु का शिष्य होना किसी का भी अहोभाग्य हो सकता है। गुरु को किसी भी स्तर पर लघु नहीं होना चाहिए। उपाध्याय परमेष्ठी. उस विद्या और उस ज्ञान को देते हैं जिससे समस्त सांसारिकता अनायास प्राप्त होती है और शिष्य उसे त्यागता हुआ आत्मा के परमधाम मोक्ष में दत्तचित्त होता चला जाता है। महाकवि भत हरि ने विद्या की विशेषता के विषय में बहुत सटीक कहा है "विद्या ददाति विनयं, विनयाद्वाति पात्रताम् । पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनाति धर्म ततः सुलम् ॥" -नीतिशतका अर्थात् विद्या से विनय, विनय से सत्पात्रता, सत्पात्रता से धन, धन से धर्म, धर्म से सुख-और आत्मा की चरम उपलब्धि-मुक्ति का सुख प्राप्त होता है.। ज्ञानहीन मानव पशु के समान है, वह शव है। ज्ञान से ही शव में शिवत्व अर्थात् चैतन्य और परकल्याण एवं आत्मकल्याण के भाव जागृत होते हैं। यह लोकोत्तर कार्य उपाध्याय परमेष्ठी द्वारा ही सम्भव होता है। मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की ज्ञानाश्रयी निर्गुण धारा के प्रमुख कवि कबीरदासजी ने तो गुरु को साक्षात् ईश्वर ही माना है
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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