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________________ ५८ जैन दर्शन और संस्कृति लोक पहले था, वर्तमान में और भविष्य में सदा रहेगा-इसलिए काल-लोक अनन्त है। लोक में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की पर्यायें अनन्त हैं तथा बादरस्कन्धों की गुरु-लघु पर्याय, सूक्ष्म स्कंधों और अमूर्त द्रव्यों की अगुरु-लघु पर्यायें अनन्त हैं इसलिए भाव-लोक अनन्त है। लोक-स्थिति गौतम ने पूछा- 'भंते! लोक-स्थिति कितने प्रकार की है? भगवान् ने कहा- 'गौतम! लोक स्थिति के आठ प्रकार हैं१. वायु आकाश पर टिकी हुई है। २. समुद्र वायु पर टिका हुआ है। ३. पृथ्वी समुद्र पर टिकी हुई है। ४. त्रस-स्थावर जीव पृथ्वी पर टिके हुए हैं। ५. अजीव-जीव के आश्रित हैं। ६. सकर्म-जीव कर्म के आश्रित हैं। ७. अजीव जीवों द्वारा संगृहीत हैं। ८. जीव कर्म-संगृहीत हैं। आकाश, वायु, जल और पृथ्वी-ये विश्व के आधारभूत अंग हैं। विश्व की व्यवस्था इन्हीं के आधार-आधेय भाव से बनी हुई है। संसारी जीव और अजीव (पुद्गगल) में आधार-आधेय भाव और संग्राह्य-संग्राहक भाव ये दोनों हैं। जीव आधार है और शरीर उसका आधेय ! कर्म संसारी जीव का आधार है और संसारी जीव उसका आधेय।। ___जीव अजीव (भाषा-वर्गणा, मनो-वर्गणा और शरीर-वर्गणा) का संग्राहक है। कर्म संसारी जीव का संग्राहक है। तात्पर्य यह है—कर्म से बंधा हुआ जीव ही सशरीर होता है। वही चलता-फिरता, बोलता और सोचता है। अचेतन जगत् से चेतन जगत् की जो विलक्षणताएँ हैं, वे जीव और पुद्गल के संयोग से होती हैं। जितना भी वैभाविक परिवर्तन या दृश्य रूपान्तर है, वह सब इन्ही की संयोग-दशा का परिणाम है। सृष्टिवाद सापेक्षवाद से अनुसार विश्व अनादि-अनन्त और सादि-सांत है, द्रव्य की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है, पर्याय की अपेक्षा से सादि-सांत । लोक में दो द्रव्य
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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