SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन और संस्कृति ४८ व्यक्ति " तेजोलब्धि ” नामक शक्ति उत्पन्न कर सकता है, जिसकी ऊर्जा की क्षमता सोलह जनपदों को भस्मसात् करने जितनी है । उष्ण तेजोलब्धि दाहक और शीत तेजोलब्धि शामक होती है। वर्तमान युग में प्रयुक्त आणविक या नाभिक अभिक्रियाओं से प्राप्त ऊर्जा के साथ तेजोलब्धि की तुलना की जा सकती है । ५. कार्मण–कर्मों के पुद्गल - समूह इस वर्गणा के अन्तर्गत आते हैं। कार्मण वर्गणा के पुद्गल - समूह जीवों की सत्-असत् किया के प्रतिफल के जीव के साथ बंध जाते हैं, जिससे कार्मण-शरीर का निर्माण होता है । कार्मण- शरीर तैजस शरीर से भी सूक्ष्मतर होता है और तैजस शरीर की तरह सदा जीव के साथ रहता है । 1 ६. श्वासोच्छ्वास – श्वास और उच्छ्वास या आन-प्राण के योग्य पुद्गल-समूह इस वर्गणा के अन्तर्गत आते हैं। ऑक्सीजन के स्कन्धागु इस वर्गणा के हैं । ७. भाषा वर्गणा - जब कोई भी जीव वाणी प्रयोग करता है तब इस वर्गणा के पुद्गल-समूह को ध्वनि में परिवर्तित कर करता है । ८. मनो वर्गणा - चिन्तन आदि मन की प्रवृत्तियों में सहायक बनने वाले पुद्गल - समूह इस वर्गणा के अन्तर्गत आते हैं । कोई भी संज्ञी (मननशील) प्राणी जब चिन्तन आदि मन की प्रवृत्ति करता है, तो पहले मनो वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है और उनकी सहायता से मनन, चिन्तन आदि क्रियाएँ सम्पन्न करता हैं। इन वर्गणाओं से पाँच प्रकार के शरीर का निर्माण करने वाले पुद्गल स्कन्ध उत्तरोत्तर (क्रमश:) सूक्ष्म और स्कन्ध - परिमाण की अपेक्षा से असंख्य गुने होते हैं तथा तैजस और कार्मण शरीर के पुद्गल - स्कन्ध अनन्त गुने होते हैं । एक पौद्गलिक पदार्थ का दूसरे पौद्गलिक पदार्थ के रूप में परिवर्तन हो सकता है, अतः एक वर्गणा के पुद्गल वर्गणान्तर के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं । प्रथम चार वर्गणाएँ तथा श्वासोच्छ्वास वर्गणा अष्ट-स्पर्शी - स्थूल स्कन्ध हैं। वे हल्की-भारी, मृदु कठोर भी होती हैं । कार्मण, भाषा और मन ये तीन वर्गणाएँ चतु:स्पर्शी हैं अर्थात् सूक्ष्म स्कन्ध हैं । इनमें केवल शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष – ये चार ही स्पर्श होते हैं, शेष चार स्पर्श ( हल्का - भारी, मृदु-कठोर ) नहीं होते । श्वासोच्छ्वास वर्गणा के पुद्गल क्वचित् चतुःस्पर्शी भी होते हैं । प्राणी और पुद्गल का सम्बन्ध प्राणी के उपयोग में जितने पदार्थ आते हैं, वे सब पौद्गलिक ही होते हैं, किन्तु विशेष ध्यान देने की बात यह है कि वे सब जीव- शरीर में प्रयुक्त हुए
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy