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________________ आओ चलें अमूर्त विश्व की यात्रा पर ३१.. भगवान् — गौतम ! स्थिति का सहारा नहीं होता तो खड़ा कौन रहता ? कौन बैठता ? सोना कैसे होता ? कौन मन को एकाग्र करता मौन कौन करता ? कौन निस्पन्द बनता ? निमेष कैसे होता ? यह विश्व चल ही होता । जो स्थिर हैं, उन सबका आलम्बन स्थिति - सहायक तत्त्व ही है । सिद्धसेन दिवाकर धर्म-अधर्म के स्वतन्त्रं द्रव्यत्व को आवश्यक नहीं मानते । वे इन्हें द्रव्य के पर्याय - मात्र मानते हैं । दार्शनिक जगत् में जैन दर्शन के सिवाय किसी भी दर्शनं ने इन दो द्रव्यों के अस्तित्व की कोई चर्चा नहीं की है। वैज्ञानिक जगत् में न्यूटन ने ईथर नामक गति-माध्यम (medium of motion) को स्वीकार किया था, पर उसका स्वरूप अभौतिक नहीं था। न्यूटन - कालीन भौतिक विज्ञान, जिसे प्राचीन (classical) कहा जाता है, में प्रकाश तरंगों के प्रसार के माध्यम के रूप में ईथर का अस्तित्व माना गया था। ईथर एक ऐसा भौतिक तत्त्व माना गया जो समग्र आकाश में व्याप्त है और जो प्रकाश तरंगों के प्रसार में उसी तरह सहायक होता है, जिस तरह समुद्र की तरंगों के प्रसार में पानी अथवा ध्वनि तरंगों के प्रसार में हवा होती है । बाद में जब भ्रमणशील पृथ्वी के साथ गतिशील ईथर का प्रकाश के वेग़ पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसे मापने के लिए माइकलशन और मोर्ले ने अतिसूक्ष्मग्राही यंत्रों द्वारा प्रयोग किया, तो पता चला कि ईथर का कोई प्रभाव प्रकाश की गति पर नहीं पड़ता है । इस प्रयोग के परिणामों के आधार पर बाद में आपेक्षिकता के सिद्धान्त में आइन्स्टीन ने ईथर नामक भौतिक गति-माध्यम के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया । आधुनिक भौतिक विज्ञान में अब इस 'ईथर' का अस्तित्व समाप्त हो गया है पर इससे अभौतिक ईथर (गति - माध्यम) के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक सर आर्थर एडिंग्टन ने ईथर - सम्बन्धी एक नया सिद्धान्त उपस्थित किया है । उनके अभिमत में आपेक्षिकता के सिद्धान्त ने भौतिक ईथर का अस्तित्व मिटा दिया है, किन्तु तब भी अभौतिक ईथर का अस्तित्व तो सम्भव हो सकता है । एडिंग्टन ने आकाश और ईथर में अविच्छिन्न सम्बन्ध की कल्पना की है और माना है कि आकाश, ईथर और क्षेत्र (field) तीनों ही एक है।” धर्म-द्रव्य, अधर्म - द्रव्य का यौक्तिक आधार धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य को मानने के लिए हमारे सामने मुख्यतया दो यौक्तिक दृष्टियाँ हैं— १. गति -स्थिति-निमित्तक द्रव्य, २. लोक- अलोक की विभाजक शक्ति ।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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