SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ आओ चलें अमूर्त विश्व की यात्रा पर दिशा और अनुदिशा की उत्पत्ति तिर्यग् लोक (लोक के मध्य भाग) से होती है। दिशा का प्रारम्भ आकाश के दो प्रदेशों से शुरू होता है और उनमें दो-दो प्रदेशों की वृद्धि होते-होते वे असंख्यात प्रदेशात्मक बन जाती हैं। अनुदिशा केवल एक प्रदेशात्मक होती है। ऊर्ध्व और अधोदिशा का प्रारम्भ चार प्रदेशों से होता है, फिर उनमें वृद्धि नहीं होती। यह दिशा का आगमिक स्वरूप है। जिस व्यक्ति के जिस ओर सूर्योदय होता है, वह उसके लिए पूर्व और जिस ओर सूर्यास्त होता है, वह पश्चिम तथा दाहिने हाथ की ओर दक्षिण और बाएँ हाथ की ओर उत्तर दिशा होती है। उन्हें ताप-दिशा कहा जाता है। निमित्त-कथन आदि प्रयोजन के लिए दिशा का एक प्रकार और होता है। प्रज्ञापक जिस ओर मुंह किए होता है वह पूर्व, उसका पृष्ठ भाग पश्चिम, दोनों पाश्व दक्षिण और उत्तर होते हैं। इन्हें प्रज्ञापक दिशा कहा जाता है। आकाश और दिन के बारे में अन्य दर्शनों में अनेक विचार प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिक आकाश और दिक् को पृथक् द्रव्य मानते हैं। कुछ दिक् को आकाश से पृथक् नहीं मानते। कुछ दार्शनिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार शब्द आकाश का गुण नहीं है। शब्द पौद्गलिक हैं। वह पुद्गलों के संघात और भेद की निष्पत्ति है, कार्य है। विज्ञान ने भी शब्द को भौतिक ऊर्जा के रूप में स्वीकार किया है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जैन दर्शन में जहाँ धर्म, अधर्म शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक दृष्टि से क्रमश: आत्मा को विशुद्ध और मलिन बनाने वाले तत्त्वों के रूप में किया गया है, वहाँ तत्व-मीमांसा (Metaphysics) में इनका अर्थ बिलकुल भिन्न है। धर्मास्तिकाय या धर्म-द्रव्य की परिभाषा है—जो द्रव्य लोक में गतिशील सभी द्रव्यों (जीव और पुद्गलों) की गति में अनन्य सहायक होता है, वह धर्म-द्रव्य है। दूसरे शब्दों में वह गति का अनिवार्य माध्यम (medium) है, जिसके बिना किसी भी प्रकार की गति (motion) सम्भव नहीं है। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे 'गति-माध्यम' (medium of motion) कहा जा सकता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय की परिभाषा है—जो द्रव्य लोक में स्थितिअशील सभी द्रव्यों (जीव और पुद्गलों) की स्थिति (स्थिर रहना या अ-गति) में अनन्य सहायक होता है, वह अधर्म-द्रव्य है। इसके बिना किसी भी प्रकार की स्थिति (स्थिर रहना) सम्भव नहीं है। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे 'स्थिति-माध्यम' (medium of rest) कहा जा सकता है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy