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________________ आओ चलें अमूर्त विश्व की यात्रा पर आकाशास्तिकाय 'आकाश' (space) का सूचक है। संक्षेप में इसे 'आकाश' कह सकते हैं। इसकी परिभाषा है-वह द्रव्य जो अन्य सभी द्रव्यों को अवगाह/आश्रय देता है. उसको 'आकाश' कहते हैं। . __ आकाश का गुण अवगाहन है। वह स्वयं अनालम्ब है, शेष सब द्रव्यों का आलम्बन है। स्वरूप की दृष्टि से सभी द्रव्य स्व-प्रतिष्ठ हैं, किन्तु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश-प्रतिष्ठ होते हैं इसीलिए आकाश को सब द्रव्यों का भाजन कहते हैं। · गौतम ने पूछा-भगवान् ! आकाश तत्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ होता है? भगवान ने कहा-गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहाँ होते? ये धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते? काल कहाँ बरतता? पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता? यह विश्व निराधार ही होता। जैन दर्शन में आकाश के 'समग्र स्वरूप को बहुत विस्तार के साथ निरूपित किया गया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (स्वरूप) और गुण-इन पाँच सन्दर्भ-बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन प्रत्येक द्रव्य के स्वरूप पर विचार करता है। आकाश पर भी इन पाँच सन्दर्भ-बिन्दुओं की दृष्टि से प्रकाश डाला गया १. द्रव्य की दृष्टि से-आकाशास्तिकाय एक, अखण्ड, स्वतंत्र, वस्तुनिष्ठ (objective) वास्तविकता (सत्) (reality) है। २. क्षेत्र की दृष्टि से-आकाश अनन्त और असीम है। उसकी रचना समरूप सातत्यक (homogeneous continuum) के रूप में है। उसके प्रदेशों की संख्या अनन्त है। आकाश सर्वव्यापी है; इसलिए लोक से परे (अलोक में) भी उसका अस्तित्व है। लोक आकाश के प्रदेश असंख्यात और अलाक-आकाश के प्रदेश अनन्त हैं। ३. काल की दृष्टि से- इसका अस्तित्व आदि (beginningless) और अनन्त (endless) है अर्थात् शाश्वत है। । . ४. भाव (स्वरूप) की दृष्टि से-आकाश अमूर्त है अर्थात् वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि गुण-रहित हैं; अभौतिक हैं-~-भौतिक द्रव्य या जड़ द्रव्य (पुद्गल) से भिन्न है; चैतन्य-रहित होने से अजीव है; गति-रहित होने से अगतिशील है। ५. गुण की दृष्टि से- भाजन-गण अर्थात् अन्य द्रव्यों को अवगाहन के लिए स्थान प्रदान करता है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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