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________________ १८ जैन दर्शन और संस्कृति ___“सत्य, श्रद्धा, जगत, धन, विश्व, दीप्ति, क्रीड़ा, मोद, पुत्र, होने वाला अपत्य, सूक्त, पुण्य, ये सब मेरे लिये हों।" वैदिक दर्शन के आशावादी मंच पर श्रमण-दर्शन को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसमें कामना का स्वर मुखर नहीं है। उसका स्वर देशातीत और कालातीत अस्तित्व को अनावृत करने की दिशा में मुखर है। वह जीवन के प्रति निराश नहीं है, किन्तु जीवन-विकास की अन्तिम रेखा तक पहुँचने के लिए समर्पित है। उसका अन्तिम लक्ष्य है-मोक्ष। उसका अंतिम लक्ष्य है-निर्वाण ।' उपनिषदों का मंतव्य वैदिक ऋषियों की उपर्युक्त मान्यताओं से भिन्न, पर श्रमण-दर्शन के सदृश रूप में उपलब्ध होता है। “भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में इतिहास” में बताया गया है—“उपनिषदों में आत्मा एवं ब्रह्म अभिन्न हैं जबकि ब्राह्मण एवं आरण्यक में दोनों को पूर्णत: भिन्न बताया गया है। उपनिषदों में आत्मा अथवा ब्रह्म को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है जबकि ब्राह्मण और आरण्यक ग्रंथों में देवताओं को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इस प्रकार इन ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न विषयों का प्रतिपादन है। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर हमें वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध विद्रोह की भावना दिखाई देती है। जगह-जगह पर ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड की कटु आलोचना की गई है। यज्ञों और कर्मकांडों को "मुण्डक उपनिषद्” में सारहीन और हास्यास्पद बताया गया है, पुरोहितों के व्यक्तित्व को ठुकराया गया है, उनके अस्तित्व को चुनौती दी गई है। इस तरह उपनिषदों में कर्म के स्थान पर ज्ञान को विशेष महत्त्व दिया गया है। यज्ञ, उपासना और बाह्य प्रकृति के प्रति अनुराग प्रकट करने के स्थान पर आत्मा के ज्ञान की ओर अधिक ध्यान दिया है। सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि उपनिषद् यज्ञ और उपासना पर बल नं देकर आध्यात्मिकता की ओर प्रेरित करते हैं। उपनिषदों के अनुसार मनुष्य का सच्चा ध्येय मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष का अभिप्राय है जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों से मुक्ति । मनुष्य को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि उसे फिर से जन्म न लेना पड़े क्योंकि जन्म लेने से ही जीव को अनेक क्लेश भोगने पड़ते हैं। श्री दिनकर के अनुसार-“उपनिषदों ने सच्चे सुख की जो कल्पना की, वह मोक्ष का सुख था, वह जीवन और मृत्यु से छुटकारा पाने का सुख था। इस सुख के सामने स्वर्ग-सुख को उपनिषदों ने हीन बताया और इसी प्रकार लोग स्वर्ग के सामने लौकिक जीवन को हीन मानने लगे हैं। अतएव भारतीय दर्शन में निराशावाद की एक हलकी परम्परा का आरम्भ क्रमशः..
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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