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________________ जैन दर्शन और संस्कृति “आत्मा पर नियंत्रण कर, यह दुःख-मुक्ति का उपाय है ।” - इस दुःख निवृत्ति के उपाय ने क्रियावाद को जन्म दिया। इसकी शोध के साथ-साथ दूसरे अनेक तत्त्वों का विकास हुआ। १६ आश्चर्य और संशय भी दर्शन - विकास के निमित्त बनते हैं । जैन सूत्रों में भगवान् महावीर और उनके ज्येष्ठ शिष्य गौतम के प्रश्नोत्तर प्रचुर मात्रा में हैं । गौतम स्वामी ने प्रश्न पूछे, उनके कई कारण बताए हैं। उनमें दो कारण ये हैं— संशय और कौतूहल (यानी जिज्ञासा) । गौतम को जब संशय और कौतूहल हुआ तब वे भगवान् महावीर के पास आए और उनसे समाधान माँगा। भगवान् महावीर ने उनके प्रश्नों को समाहित किया । ये प्रश्नोत्तर जैन तत्त्वज्ञान की अमूल्य निधि हैं । जैन दर्शन का ध्येय जैन दर्शन का ध्येय है— आध्यात्मिक अनुभव । आध्यात्मिक अनुभव का अर्थ स्वतंत्र आत्मा का एकत्व में मिल जाना नहीं, किन्तु अपने स्वतंत्र अस्तित्व का अनुभव करना है। जैन दर्शन को वेदान्त का यह मंतव्य स्वीकार्य नहीं है कि मुक्त-दशा प्राप्त आत्मा किसी परम अस्तित्व या सत्ता में विलीन हो जाती है । जैन दर्शन को बौद्ध दर्शन का यह मत भी मान्य नहीं है कि निर्वाण प्राप्त होने का अर्थ है - शून्य में विलीन हो जाना या ज्योति का सदा-सदा के लिए बुझ जाना । प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता है और प्रत्येक आत्मा अनंत शक्ति सम्पन्न है । आत्मा और परमात्मा, ये सर्वथा भिन्न सत्तात्मक तत्त्व नहीं हैं । अशुद्ध दशा में जो आत्मा होती है, वही शुद्ध दशा में परमात्मा बन जाती है । अशुद्ध दशा में आत्मा के ज्ञान और शक्ति जो आवृत होते हैं, वे शुद्ध दशा में पूर्ण विकसित हो जाते हैं। शुद्ध आत्माओं की संख्यात्मक भिन्नता बनी रहती है । 'सत्य की शोध' यह भी जैन दर्शन का ध्येय है किन्तु केवल सत्य की शोध ही नहीं, उसकी प्राप्ति ध्येय के साथ जुड़ी हुई है । आध्यात्मिक दृष्टि से वही सत्य सत्य है, जो आत्मा को अशुद्ध या अनुन्नत दशा से शुद्ध या उन्नत दशा में परिवर्तित करने के लिए उपयुक्त होता है। मार्क्स ने जो कहा " दार्शनिकों ने जगत् को विविध प्रकार से समझने का प्रयत्न किया है, किन्तु उसे बदलने का नहीं", यह सर्वांग सुन्दर नहीं है। परिवर्तन के प्रति दृष्टि-बिन्दु हैं— बाह्य और आन्तरिक । उनका भारतीय दर्शन आंतरिक परिवर्तन को मुख्य मानकर चले हैं । अभिमत यह रहा है कि आध्यात्मिक परिवर्तन होने पर बाहरी परिवर्तन अपने
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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