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________________ परिशिष्ट प्रदेश-उदय प्रमाण २६७ किया जा सकता। यह प्रत्येक द्रव्य की क्षेत्रीय इकाई है। भूमिति के बिन्दु (point) के साथ इसकी तुलना की जा सकती है। कर्म जब उदय अवस्था को प्राप्त होते हैं, तो पहले प्रदेश-उदय होता है, फिर विपाक-उदय। प्रदेश-उदय में कर्म का नाम मात्र उदय होता है। उसका फल तो विपाक उदय में ही मिलता है। देखें, उदय । यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहा जाता है। प्रमाण के विषय को प्रमेय कहते हैं। यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। जो पदार्थ ज्ञान का विषय है वह प्रमेय है। . अभाव का एक भेद। कार्य का अपनी उत्पत्ति से पहले न होना उसका प्रागभाव है। आत्मा के साथ बन्धे हुए कर्म जो उसे संसारावस्था में बांधे रखते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त मनुष्य, देव आदि जिस "गति" में आत्मा रहती है वह एक “भव" कहलाता प्रमय प्रागभाव (प्राग् + अभाव) बन्ध भाव-इन्द्रिय नाक, कान आदि इन्द्रियों की बाहरी और भीतरी पौद्गिलक रचना (आकार-विशेष) द्रव्येन्द्रिय कहलाती है, इससे विपरीत आत्मा को जानने की योग्यता और प्रवृत्ति भावेन्द्रिक कहलाती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न स्पर्श आदि विषयों को जानने की शक्ति तथा अर्थ को ग्रहण करने वाला आत्मा का व्यापार (प्रवत्ति) भावेन्द्रिय के अन्तर्गत आते हैं। कर्म-बंध में हेतुभूत आत्मा की अवस्था भाव कर्म कहलाते हैं। भाव-कर्म द्रव्य-कर्म के बंधन का मूल कारण है। द्रव्य कर्म अजीव है. भाव कर्म जीव (आत्मा की ही अवस्था है)। । जीव जो वाणी बोलता है, वह चार प्रकारों में से किसी एक प्रकार की हो सकती है१. सत्य भाषा-सत्य (यथार्थ) बात बोलना।' भाव-कर्म भाषा (चार प्रकारसत्य, असत्य, मिश्र, - व्यवहार)
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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