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________________ २६० आप्त आलय विज्ञान आवलिका - आवश्यक कर्म आस्तिक ishiriki जैन दर्शन और संस्कृति प्रमुख ज्ञानी शिष्यों (गणधरों) द्वारा गुम्फित किया जाता है। जो यथार्थ ज्ञान के धारक हैं और यथार्थ प्रतिपादन करते हैं, वे आप्त कहलाते हैं। जैन दर्शन 'वीतराग' को ही आप्त मानता है। चेतना-सन्तति । बौद्ध दर्शन के अनुसार चेतना की जो सन्तति यानी श्रृंखला है, वह आलय-विज्ञान कहलाता है। यह काल-सूचक एक अति सूक्ष्म नाप है। ४८ मिनट में १,६७,७७,२१६ आवलिकाएं होती हैं। श्रावक व साधु को अपने व्रत की रक्षा के लिए नित्य छह क्रिया करनी आवश्यक हैं। जो इन्द्रिय के वश्य (अधीन) नहीं है उसे आवश्यक कहते हैं। ऐसे संयमी के रात व दिन में करने योग्य कार्यों का नाम आवश्यक है। सामान्यतया ईश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति आस्तिक कहलाता है, पर व्यापक दृष्टि से चिन्तन करने पर आत्मा, परमात्मा, परलोक, धर्म, पुण्य-पाप आदि लोकोत्तर तत्त्वों में विश्वास रखने वाला आस्तिक है। कर्म ग्रहण करने वाले आत्मा के परिणाम आस्रव कहलाते हैं। ये चेतना की वे अवस्थाएं हैं जो कर्म-बंधन के लिए जिम्मेदार हैं। इन्हें 'आस्रव-द्वार' भी कहा जाता है क्योंकि ये कर्म के प्रवेश के लिए खुले द्वार हैं। देखें ‘परिणाम'। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद और कषाय-ये चार आस्रव-चतुष्टय कहलाते हैं। इन्द्रिय और वस्तु के संबंध होते ही 'सत्ता' (है) का बोध होना ‘अवग्रह' है। अवग्रह द्वारा जाने हुए पदार्थ के स्वरूप का निश्चय करने के लिए विमर्श करने वाले ज्ञानक्रम का नाम ईहा है। चेतन व अचेतन दोनों ही द्रव्य अपनी जाति को कभी नहीं छोड़ते। फिर भी अन्तरंग और बहिरंग आश्रव आत्रम-चतुष्टय - उत्पाद
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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