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________________ २४० जैन दर्शन और संस्कृति आकृति से प्रभावित होकर उन्होंने उसी आकृति का जिनालय बनवाने की प्रतिज्ञा ली। दूर-दूर से शिल्पी आमंत्रित किए गए। प्रारभिक रेखाचित्र बने। इनमें से मुंडारा गांव के देपाक नामक शिल्पी का रेखाचित्र पसन्द किया गया और उसी के अनुसार विक्रम संवत् १४९५ में जिनालय की नींव डाली और १४९८ में मंन्दिर तैयार हो गया। इसमें लगभग एक करोड़ रुपया व्यय हुआ। यह मन्दिर अपनी सानी का बेजोड़ मन्दिर है। इसमें २४ रंगमंडप, १८४ भूगृह, ८५ शिखर और १४४४ स्तम्भ हैं। आदिनाथ की मूर्ति की स्थापना इस प्रकार की गई है कि व्यक्ति मन्दिर में किसी भी स्थान पर, किसी भी कोण में खड़ा रहे, उसे प्रतिमा के दर्शन होते हैं। इसका प्रस्तर-शिल्प बहुत ही अनोखा और हृदयग्राही है। इस मन्दिर के निर्माता धरणाशाह के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि एक दिन धरणाशाह मंदिर का निर्माण देखने गए। एक दीपक जल रहा था। उसके तेल में एक मक्खी गिर गई। धरणाशाह ने तेल से सनी मक्खी निकाल कर अपनी जूती पर रख ली, जिससे कि मवखी के शरीर पर लगा तेल जूती पर जाए, व्यर्थ न चला जाए। शिल्पियों ने यह देखा। वे आश्चर्यचकित रह गए। उनका मन संदेह से भर गया कि ऐसा कंजूस व्यक्ति इतना बड़ा जिनालय कैसे बनवा सकेगा.? परीक्षा करने के लिए उन्होंने एक दिन धरणाशाह से कहा-नीवों में सर्वधातुओं का प्रयोग करना होगा क्योंकि इतना विशाल जिन-भवन पत्थर की नींव पर टिक नहीं पायेगा। शिल्पियों की बात सुनकर धरणाशाह ने विपुल मात्रा में 'सर्वधात्' एकत्रित कर उन्हें विस्मित कर दिया। धरणाशाह यह मानता था कि व्यर्थ एक पैसे भी खर्च न हो और आवश्यक खर्च में तनिक भी कमी न हो। ६. राजगृह (राजगिरि) बिहारशरीफ से दक्षिण की ओर १३-१४ मील की दूरी पर स्थित राजगृह प्राचीन राजगिरि है। इसे गिरिव्रज भी कहा जाता है, क्योंकि यह पांच पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इन पाँच पहाड़ियों के नाम ये हैं—विपुल, रत्न, उदय, स्वर्ण और वैभार। इनमें विपुल और वैभार पर्वत का बहुत महत्त्व है। अनेक मुनियों ने विपुलाचल पर तपस्या कर मोक्ष प्राप्त किया था। आज भी वहाँ अनेक गुफाएं हैं। यह पाँच पहाड़ियों में सबसे ऊंची पहाड़ी है। वैभार पर्वत के नीचे गरम पानी का एक कुंड है। इसका वर्णन जैन आगम भगवती में भी आया है। आज भी वहाँ गरम पानी का स्रोत विद्यमान है। वह चर्मरोग-निवारण का उपाय बताया जाता है। हजारों लोग वहां नहाते हैं। भगवान् महावीर और. महात्मा बुद्ध ने राजगृह में अनेक चातुर्मास बिताए थे। महावीर प्राय: वहाँ के गुणशील चैत्य में ठहरते थे। वर्तमान में नबादा
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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