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________________ जैन धर्म का प्रसार २२९ सन् की पहली शताब्दी में और उसके बाद के हजार वर्षों तक जैन-धर्म मध्यपूर्व के देशों में किसी-न-किसी रूप में यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म को प्रभावित करता रहा है।” प्रसिद्ध जर्मन इतिहास-लेखक बान क्रेमर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है। इतिहास लेखक जी.एफ. मूर लिखता है कि 'हजरत ईसा के जन्म की शताब्दी से पूर्व इसक, स्याम और फिलिस्तीन में जैन-मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में फैले हुए थे।' 'सियाहत नाम ए नासिर' का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन-धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। कलन्दर चार नियमों का पालन करते थे—साधुता, शुद्धता, सत्यता और दरिद्रता। वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे। जैन-धर्म का प्रसार अहिंसा, शान्ति, मैत्री और संयम का प्रसार था। इसलिए उस युग को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार पी.सी. रायचौधरी के अनुसार—“यह धर्म धीरे-धीरे फैला, जिस प्रकार ईसाई-धर्म का प्रचार यूरोप में धीरे-धीरे हुआ। श्रेणिक, कुणिक चद्रगुप्त, संप्रति, खारवेल तथा अन्य राजाओं ने जैन-धर्म को अपनाया। वे शताब्द भारत के हिन्दूशासन के वैभवपूर्ण युग थे, जिन युगों में जैन-धर्म-सा महान् धर्म प्रचारित हुआ।" भगवान् महावीर के युग में भारत में गणतन्त्र और राजतन्त्र दोनों प्रकार की शासन-प्रणालियाँ प्रचलित थीं। अनेक राजा महावीर के भक्त थे। अनेक राजा जैन परम्परा में दीक्षित हुए। श्रेणिक, कूणिक, उदायि आदि राजाओं के पश्चात् नन्द राजाओं ने जैन धर्म को संरक्षण दिया। नन्दों के उत्तराधिकारी राजा जैन धर्म के प्रश्रय दाता रहे हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य दृढ़ जैन था। वह आचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण गया और उसने दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रदेश की ‘चन्द्रगिरि' पहाड़ी पर समाधिपूर्ण मरण प्राप्त किया। सम्राट अशोक का पुत्र कुणाल जैन धर्मावलम्बी था। वह उज्जयिनी प्रदेश का राज्यपाल था। महाराज अशोक का पुत्र कुणाल अंधा हो गया था। उसके पुत्र का नाम सम्प्रति था। सम्प्रति ने अपने पराक्रम से दक्षिणापथ, सौराष्ट्र आंध्र तथा द्रविड़ देशों पर विजय प्राप्त की थी। उसने अपने अधीनस्थ राजाओं को जैन धर्म की विशेषताओं से परिचित कराया और जैन मुनियों के विहार की देख-रेख करने का निर्देश दिया। जैन-मुनियों का विहार-क्षेत्र विस्तृत हो गया। संप्रति के प्रयास से ही जैन मुनि आंध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र आदि सीमा-स्थित प्रदेशों में जाने-आने लगे। उसने ई.पू. २३२ से २९० तक लगभग ४२ वर्ष तक राज्य
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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