SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ जैन दर्शन और संस्कृति भाषाओं- अट्ठारह देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं; इसलिए यह अर्धमागधी कहलाती है । भगवान् महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे । इसलिए जैन साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है। इसे आर्ष कहा जाता है । उसका मूल आगम का 'ऋषि - भाषित' शब्द है । आगम-विभाग आगम- साहित्य प्रणेता की दृष्टि से दो भागों में विभक्त होता है— अंग-प्रविष्ट और अनंग- प्रविष्ट । भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों ने जो साहित्य रचा, वह अंग-प्रविष्ट कहलाता है । स्थविरों ने जो साहित्य रचा, वह अनंग - प्रविष्ट कहलाता है । बारह अंगों के अतिरिक्त सारा आगम- साहित्य अनंग-प्रविष्ट है 1 द्वादशांगी का स्वरूप सभी तीर्थंकरों के समक्ष नियत होता है। अनंग-प्रविष्ट नियम नहीं होता। अभी जो एकादश अंग उपलब्ध हैं वे सुधर्मा गणधर की वाचना के हैं, इसलिए सुधर्मा द्वारा रचित माने जाते हैं । अनंग - प्रविष्ट आगम- साहित्य की दृष्टि से दो भागों में बंटता है : कुछेक आगम स्थविरों के द्वारा रचित हैं और कुछेक निर्यूढ । जो आगम द्वादशांगी या पूर्वो से उद्धृत किये गए, वे निर्यूढ कहलाते हैं । दशवैकालिक, आचारांग का दूसरा श्रुतस्कंध, निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कंध - ये निर्यूढ आगम हैं । दशवैकालिक का निर्यूहण अपने पुत्र मनक की आराधना के लिए आर्य शय्यम्भव ने किया, शेष आगमों के निर्यूहक श्रुत- केवली भद्रबाहु हैं । प्रज्ञापना के कर्ता श्यामार्य, अनुयोगद्वार के कर्ता आर्यरक्षित और नंदी के कर्ता देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण माने जाते हैं । भाषा की दृष्टि से आगमों को दो युगों में विभक्त किया जा सकता है । ई. पू. ४०० से ई. १०० तक का पहला युग है । इसमें रचित अंगों की भाषा अर्ध- मागधी है । दूसरा युग ई. १०० से ई. ५०० तक का है। इसमें रचित या निर्यूढ आगमों की भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है आगम-वाचनाएं वीर- निर्वाण की दूसरी शताब्दी में (१६० वर्ष पश्चात् ) पाटलिपुत्र में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ । उस समय श्रमण संघ छिन्न-भिन्न-सा हो गया । बहुत सारे बहुश्रुत मुनि अनशन कर स्वर्गवासी हो गए। आगम- ज्ञान की श्रृंखला टूट-सी
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy