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________________ जैन दर्शन और संस्कृति १. स्यात्-अस्ति-पृथ्वी स्व-दृष्टि से है। २. स्यात्-नास्ति-पृथ्वी पर दृष्टि से नहीं है। ३. स्यात् अववतव्य-पृथ्वी उक्त दोनों धर्मों को युगपत् न बताए जाने के कारण अवक्तव्य है। ४. स्यात्-अस्ति, स्यात्-नास्ति—पृथ्वी स्व की अपेक्षा से है, पर की अपेक्षा से नहीं है-यह दो अंशों की क्रमिक विवक्षा है । ५. स्यात्-अस्ति, स्यात्-अवक्तव्य-स्व की अपेक्षा से है, युगपत् स्व-पर की अपेक्षा से अवक्तव्य है। ६. स्यात्-नास्ति, स्यात्-अवक्त्तव्य-पर की अपेक्षा से नहीं है, युगपत् स्व-पर की अपेक्षा से अववतव्य है। ७. स्यात्-अस्ति, स्यात्-नास्ति, स्यात्-अवक्तव्य-एक अंश स्व की अपेक्षा से है, एक अंश पर की अपेक्षा से नहीं है, युगपत् दोनों की अपेक्षा से अवक्तव्य ___ एक विद्यार्थी में योग्यता, अयोग्यता, ये दो धर्म मान कर सात भंगों की परीक्षा करने पर इनकी व्यावहारिकता का पता लग सकेगा। इनमें दो गुण सद्भावरूप हैं और दो उनके प्रतियोगी। ... किसी ने अध्यापक से पूछा-'अमुक विद्यार्थी पढ़ने में कैसा है?' अध्यापक ने कहा—'बड़ा योग्य है।' १. यहाँ पढ़ाई की अपेक्षा से उसका योग्यता-धर्म मुख्य बन गया और शेष सब धर्म उसके अन्दर छिप गए-गौण बन गए। दूसरे ने पूछा-'विद्यार्थी नम्रता में कैसा है?' अध्यापक ने कहा—'बड़ा अयोग्य है?' २. यहाँ उद्दण्डता की अपेक्षा से उसका अयोग्यता-धर्म मुख्य बन गया और शेष सब धर्म गौण बन गए। किसी तीसरे व्यक्ति ने पूछा-'वह पढ़ने में और विनय-व्यवहार में कैसा है ? अध्यापक ने कहा—'वन्या कहें बड़ा विचित्र है। इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। ३. यह विचार तब निकलता है, जब उसकी पढ़ाई और उच्छंखलता, ये दोनों बातें एक साथ मुख्य बन दृष्टि के सामने नाचने लग जाती हैं। ४. कभी-कभी ऐसा भी उत्तर होता है, ‘भाई! अच्छा ही है, पढ़ने में योग्य है किन्तु वैसे व्यवहार में योग्य नहीं है।'
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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