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________________ जैन दर्शन का सापेक्षवाद : स्याद्वाद स्याद्वाद जैन दर्शन के चिन्तन की शैली का नाम अनेकांत-दृष्टि और प्रतिपादन की शैली का नाम स्याद्वाद है।जानना ज्ञान का काम है, बोलना वाणी का। ज्ञान की शक्ति अपरिमित है, वाणी की परिमित। ज्ञेय अनन्त, ज्ञान अनन्त, किन्तु वाणी अनन्त नहीं, क्योंकि एक क्षण में अनन्त ज्ञान अनन्त ज्ञेयों को जान सकता है, किन्तु वाणी के द्वारा कह नहीं सकता। एक तत्त्व (परमार्थ सत्य) अभिन्न सत्यों की समष्टि होता है। एक शब्द एक क्षण में एक सत्य को बता सकता है। प्रज्ञापनीय भावों का निरूपण वाणी के द्वारा होता है। यह श्रोता के ज्ञान का साधन बनता है। यहाँ एक समस्या उत्पन्न होती है-हम जानें कुछ और ही " और कहें कुछ और ही अथवा सुनें कुछ और ही और जानें कुछ और ही, यह कैसे ठीक हो सकता है? इसका उत्तर जैनाचार्य 'स्यात्' शब्द के द्वारा देते हैं। 'मनुष्य स्यात् है'-इस शब्दावली में सत्ता धर्म की अभिव्यक्ति है। मनुष्य केवल 'अस्तिधर्म'नमात्र नहीं है। इसमें 'नास्ति-धर्म' भी है। ‘स्यात्' शब्द यह बताता है कि अभिव्यक्त सत्यांश को ही पूर्ण सत्य मत समझो। अनन्त धर्मात्मक वस्तु ही सत्य है। ज्ञान अपने आप में सत्य ही है। उसके सत्य और असत्य-ये दो रूप प्रमेय के सम्बन्ध से बनते हैं। शब्द न सत्य है और न असत्य। वक्ता दिन को दिन कहता है, तब वह यथार्थ होने के कारण सत्य होता है और यदि रात को दिन कहे तब वही अयथार्थ होने के कारण असत्य बन जाता है। 'स्यात्' शब्द पूर्ण सत्य के प्रतिपादन का माध्यम है। एक धर्म की मुख्यता से वस्तु को बताते हुए भी हम उसकी अनन्तधर्मात्मकता को ओझल नहीं करते। इस स्थिति को संभालने वाला “स्यात्' शब्द है। यह प्रतिपाद्य धर्म के साथ शेष अप्रतिपाद्य धर्मों की एकता बनाए रखता है। इसलिए इसे प्रमाण-वाक्य या सकलादेश कहा जाता है। स्याद्वाद : स्वरूप ‘स्यात्' शब्द तिङ्न्त प्रतिरूपक अव्यय है। इसके प्रशंसा, अस्तित्व, विवाद, विचारण, अनेकान्त, संशय, प्रश्न आदि अनेक अर्थ होते हैं। जैन दर्शन में
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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