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________________ १ दर्शन है सत्यं शिवं सुन्दरं की त्रिवेणी यह संसार अनादि अनन्त है। इसमें संयोग-वियोगजन्य सुख - दुःख की अविरल धारा बह रही है । उसमें गोता मारते-मारते जब प्राणी थक जाता है, तब वह शाश्वत आनन्द की शोध में निकलता है । वहाँ जो हेय और उपादेय की मीमांसा होती है, वही दर्शन बन जाता है । दर्शन की परिभाषा दर्शन का अर्थ है— तत्त्व का साक्षात्कार या उपलब्धि । दर्शन की तीन विधियाँ सम्मत हैं— (१) आलोचनात्मक ज्ञान के द्वारा प्रत्यय का अवधारण (२) कार्य-कारण की मीमांसा के द्वारा प्रत्यय का अवधारण (३) अनुभव के आधार पर प्रत्यय का समाकलन और अन्तर्दृष्टि के द्वारा निष्कर्ष पर पहुँचना । वैदिक ऋषियों ने नदी, पर्वत, आकाश, वृक्ष आदि प्राकृतिक पदार्थों को देखा, एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न हुआ, दर्शन की एक धारा विकसित हो गई । 'घट' एक कार्य है । व्यवहार नय (स्थूल सत्य) की दृष्टि से वह मिट्टी से बना है और निश्चय नय (सूक्ष्म सत्य या वास्तविक सत्य) की दृष्टि से वह परमाणु-समुदय से बना है । भगवान् महावीर ने वस्तु जगत् को समझने के लिए कार्य-कारणात्मक दृष्टिकोण दिया, दर्शन की दूसरी धारा विकसित हो गई । भगवान् बुद्ध ने मृत, रोगी और वृद्ध व्यक्ति को देखा; मन व्याकुल हो उठा, अनुभव की भूमिका पर गए और उन्होंने दुःख का साक्षात्कार कर लिया । दर्शन की अनुभव - परक तीसरी धारा विकसित हुई । दर्शन में बुद्धिवाद और तर्कवाद का स्थान है, पर उसमें बुद्धि और तर्क का एकाधिपत्य नहीं है। उसमें अन्तर्दृष्टि और अनुभव का महत्त्वपूर्ण स्थान है 1 भारतीय दर्शन मूलत: अध्यात्म-विद्या अथवा योगविद्या से जुड़ा हुआ है I
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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