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________________ जैन दर्शन और संस्कृति १. ज्ञान—जानना, वस्तु-स्वरूप का विमर्श करना। २. दर्शन—साक्षात् करना, वस्तु का स्वरूप ग्रहण (perceive) करना। ज्ञान और दर्शन के आवारक पुद्गल क्रमश: 'ज्ञानावरण' और 'दर्शनावरण' कहलाते हैं। इनसे क्रमश: ज्ञान और दर्शन का निरोध होता है। आत्मा को विकृत बनाने वाले पुद्गलों की संज्ञा ‘मोहनीय' है। इसके दो उपभेद हैं १. दर्शन मोह-श्रद्धा को विकृत (विपरीत) करने वाला। २. चारित्र मोह–कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) के द्वारा आत्मा के चारित्र-गुण को विकृत बनाने वाला। आत्म-शक्ति का प्रतिरोध करने वाले पुद्गल अन्तराय कहलाते हैं। ये चार घात्यकर्म हैं। वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु–ये चार अघात्यकर्म हैं। ___घात्यकर्म के क्षय के लिए आत्मा को तीव्र प्रयत्न करना होता है। ये चारों कर्म अशुभ (पाप) ही होते हैं। इसके आंशिक क्षय या उपशम से आत्मा का स्वरूप आंशिक मात्रा में उदित होता है। इनके पूर्ण क्षय से आत्म-स्वरूप का पूर्ण विकास होता है—क्रमश: अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र और अनन्त शक्ति प्राप्त होती है। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र—ये चार कर्म शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। अशुभकर्म अनिष्ट-संयोग और शुभकर्म इष्ट-संयोग के निमित्त बनते हैं। इन दोनों का जो संगम है, वह संसार है। पुण्य-परमाणु सुख-सुविधा के निमित्त बन सकते हैं, किन्तु उनसे आत्मा की मुक्ति नहीं होती। ये पुण्य और पाप-दोनों बन्धन हैं। मुक्ति इन दोनों के क्षय से होती है। __ वेदनीय कर्म का कार्य है-सुख-दुःख का वेदन–अनुभूति कराना। वेदनीय कर्म के दो प्रकार हैं-सात वेदनीय और असात वेदनीय। ये क्रमश: सुखानुभूति और दुःखानुभूति के निमित्त बनते हैं। इनका क्षय होने पर अनन्त आत्मिक आनन्द का उदय होता है। नाम कर्म–शरीर से सम्बन्धित समग्र सामग्री के लिए जिम्मेवार है। नाम कर्म के दो प्रकार हैं-शुभ नाम और अशुभ नाम। शुभ नाम के उदय से व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से यशस्वी और विशाल व्यक्तित्व वाला होता है तथा अशुभ नाम के उदय से इसके विपरीत होता है। इनके क्षय होने पर आत्मा अपने नैसर्गिक भाव–अमूर्तिक भाव में स्थित हो जाता है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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