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________________ जैन दर्शन और संस्कृति बन्ध की अपेक्षा से जीव और पुद्गल अभिन्न हैं- एकमेक हैं । लक्षण की दृष्टि से वे भिन्न हैं । जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन, जीव अमूर्त और पुद्गल मूर्त । १३० इन्द्रिय के विषय स्पर्श आदि मूर्त हैं । उनको भोगने वाली इन्द्रियाँ मूर्त हैं । उनसे होने वाला सुख-दुःख मूर्त है । इसलिए उनके कारण-भूत कर्म भी मूर्त हैं । मूर्त ही मूर्त को स्पर्श करता है । मूर्त ही मूर्त से बंधता है। गीता, उपनिषद् आदि में अच्छे-बुरे कार्यों को जैसे कर्म कहा है, वैसे जैन-दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं है। उसके अनुसार वह (कर्म-शब्द ) आत्मा पर लगे हुए, सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है । आत्मा की प्रत्येक सूक्ष्म. और स्थूल मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के द्वारा उसका आकर्षण होता है। इसके बाद स्वीकरण (आत्मीकरण या जीव और कर्म-परमाणुओं का एकीभाव) होता है। कर्म के हेतुओं को भाव- कर्म या 'मल' और कर्म-पुद्गलों को द्रव्य-कर्म या 'रज' कहा जाता है । इनमें निमित्त - नैमित्तिक भाव है। भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म का संग्रह और द्रव्य-कर्म के उदय से भाव-कर्म तीव्र होता है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध आत्मा अमूर्त है, तब उसका मूर्त कर्म से सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यह भी कोई जटिल समस्या नहीं है । प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है । वह अनादिकाल से ही कर्मबद्ध और विकारी है । कर्मबद्ध आत्माएं कथंचित् ( किसी एक अपेक्षा से) मूर्त हैं अर्थात् निश्चय दृष्टि के अनुसार स्वरूपत: अमूर्त होते हुए भी वे संसार- दशा में मूर्त होती हैं । जीव दो प्रकार के हैं-रूपी और अरूपी मुक्त जीव अरूपी हैं और संसारी जीव रूपीं । कर्म - मुक्त आत्मा के फिर कभी कर्म का बन्ध नहीं होता । कर्म - बद्ध आत्मा के ही कर्म बंधते हैं—उन दोनों का अपश्चानुपूर्वी (न पहले और न पीछे) रूप से अनादिकाल सम्बन्ध चला आ रहा है । अमूर्त ज्ञान पर मूर्त मादक द्रव्यों का असर होता है, वह अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध हुए बिना नहीं हो सकता। इससे जाना जाता है कि विकारी अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त का सम्बन्ध होने में कोई आपत्ति नहीं आती । बंध के हेतु कर्म-सम्बन्ध के अनुकूल आत्मा की परिणति या योग्यता ही बन्ध का हेतु है । बन्ध के हेतुओं का निरूपण अनेक रूपों में हुआ है। उसके दो मुख्य हेतु हैं- प्रमाद और योग ।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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