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________________ जैन दर्शन और संस्कृति ९. विशेष गुण द्वारा स्वतंत्र अस्तित्व का बोध-वस्तु का अस्तित्व उसके विशेष गुण द्वारा सिद्ध होता है। स्वतंत्र पदार्थ वही होता है, जिसमें ऐसा त्रिकालवर्ती गुण मिले, जो किसी दूसरे पदार्थ में न मिले। आत्मा में चैतन्य नामक विशेष गुण है। वह दूसरे किसी भी पदार्थ में प्राप्त नहीं है, इसलिए आत्मा का दूसरे सभी पदार्थों से स्वतन्त्र अस्तित्व है। १०. संशय-जो यह सोचता है कि 'मैं नहीं हूँ' वही जीव है। अचेतन को अपने अस्तित्व के विषय में कभी संशय नहीं होता। 'यह है या नहीं'ईहा या विकल्प चेतन के ही होता है। सामने जो लम्बा-चौड़ा पदार्थ दीख रहा है, 'वह खम्भा है या आदमी', यह विकल्प सचेतन व्यक्ति के ही मन में उठता . ११.. द्रव्य की त्रैकालिकता-जो पहले-पीछे नहीं है, वह मध्य में नहीं हो सकता। जीव एक स्वतंत्र द्रव्य है, वह यदि पहले न हो और पीछे भी न हो तो वर्तमान में भी नहीं हो सकता। १२. संकलनात्मकता-इन्द्रियों का अपना-अपना निश्चित विषय होता है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को नहीं जान सकती। इन्द्रियां ही ज्ञाता हों, उनका प्रवर्तक आत्मा ज्ञाता न हो, तो सब इन्द्रियों के विषयों का संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता। फिर मैं स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द को जानता हूँ, इस प्रकार संकलनात्मक ज्ञान किसे होगा? ककड़ी को चबाते समय स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द-इन पाँचों को जान रहा हूँ, ऐसा ज्ञान होता है। १३. स्मृति-इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए विषयों की स्मृति रहती है। आँख से कोई वस्तु देखी, कान से कोई बात सुनी; संयोगवश आँख पूट गई और कान का पर्दा फट गया, फिर भी दृष्टि और श्रुत की स्मृति रहती है। ___ संकलनात्मक ज्ञान और स्मृति—ये मन के कार्य हैं। मन आत्मा के बिना चालित नहीं होता। आत्मा के अभाव में इन्द्रिय और मन-दोनों निष्क्रिय हो जाते हैं। अत: दोनों के ज्ञान का मूल स्रोत आत्मा है। १४. ज्ञेय और ज्ञाता का पृथक्त्व-ज्ञेय, इन्द्रिय और आत्मा—ये तीनों भिन्न हैं। आत्मा ग्राहक है, इन्द्रियां ग्रहण के साधन हैं और पदार्थ ग्राह्य हैं। लोहार सण्डासी से लोहपिण्ड को पकड़ता है। लोहपिण्ड ग्राह्य है, सण्डासी ग्रहण का साधन है और लोहार ग्राहक है। ये तीनों पृथक्-पृथक् हैं। लोहार न हो, तो सण्डासी लोहपिण्ड को नहीं पकड़ सकती। आत्मा के चले जाने पर इन्द्रिय और मन अपने विषय को ग्रहण नहीं कर पाते।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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