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________________ आकाश अन्य सभी द्रव्यों से विस्तृत और विशाल है । अन्य पाँचों द्रव्य तो लोक तक ही सीमित हैं, किन्तु आकाश अनन्त अलोक में भी व्याप्त है। अलोक में सिर्फ आकाश ही है। इस अपेक्षा से आकाश के दो भेद माने गये हैं(१) लोकाकाश और (२) अलोकाकाश । लोकाकाश में आकाश सहित छह द्रव्य हैं; जबकि अलोकाकाश में आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई द्रव्य नहीं है । लोकाकाश की अपेक्षा अलोकाकाश अनन्त गुणा है। काल का अर्थ समय (Time) है। निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा इसके दो भेद हैं । निश्चय ' काल एक समय मात्र है। यह संपूर्ण लोकाकाश. में रत्न राशि के समान अवस्थित है। इसके अणु समुच्चय रूप में नहीं हैं, इसीलिए इसे अस्तिकाय नहीं माना गया; क्योंकि अस्तिकाय उसी द्रव्य को कहा गया है जिसके प्रदेश अथवा परमाणु समुच्चय रूप हों। ( २२ )
SR No.006262
Book TitleJain Tattvagyan Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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