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________________ आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन ...45 सकता है। आयुर्वेदज्ञों का मानना है कि वात, पित्त और कफ के संतुलन से शरीर, मन एवं चेतना स्वस्थ रहती है तथा इनके असंतुलन से शरीर व्याधिग्रस्त हो जाता है। मूलतः जब वायु शरीर में सम रहती है तब शरीर स्वस्थ रहता है। वायु अस्थिरता-चंचलता का प्रतीक है। वायु के विषम होने पर उसका प्रभाव मनोजगत पर भी पड़ता है। अतः स्पष्ट है कि वातजन्य रोगों की उपशान्ति एवं मन:स्थैर्य के लिए वायु मुद्रा का प्रयोग किया जाता है। विधि __इस मुद्रा के लिए सर्वश्रेष्ठ वज्रासन अथवा शरीर के अनुकूल आसन में स्थिर बनें। फिर तर्जनी के अग्रभाग को अंगूठे के मूल पर लगायें, फिर अंगूठे से उस तर्जनी पर हल्का दबाव रखते हुए शेष अंगुलियों को सीधा रखने पर वायु मुद्रा बनती है।' निर्देश- 1. वज्रासन में इस मुद्रा का अभ्यास 30 मिनट किया जा सकता है। यदि आवश्यक हो तो दिन में 2 या 3 बार भी 15-15 मिनट कर सकते हैं। 2. किसी भी वायु रोग का आक्रमण होने पर 24 घंटे के भीतर इस मुद्रा के तत्काल प्रयोग से लगभग 45 मिनट में रोग शान्त होने लगता है। 3. यदि इस मुद्रा प्रयोग के उपरान्त रोग शमन में विलम्ब हो रहा है तो प्राण मुद्रा का प्रयोग भी कर लेना चाहिए। 4. कान और पेट का दर्द वायु मुद्रा से ठीक नहीं होता, क्योंकि वह वायुजनित दर्द नहीं होता। अत: पेट दर्द के लिए अपान मुद्रा एवं उत्तानपाद आसन करना चाहिए तथा कान दर्द मिटाने हेतु शून्य मुद्रा करनी चाहिए। सुपरिणाम स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से यह मुद्रा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके माध्यम से वायुजनित रोगों को दूर करने के आशातीत परिणाम देखे जा सकते हैं। • अनुभवियों के मतानुसार यह मुद्रा वायु से उत्पन्न अनेक रोगों में एक प्रभावशाली औषधि की तरह कार्य करती है। आयुर्वेदानुसार 51 प्रकार के वायु रोगों से उत्पन्न उपद्रवों को इस मुद्रा प्रयोग से शान्त किया जा सकता है। • इससे गठिया का दर्द, लकवा (पेरेलिसीस), वायु कम्पन (पार्किन्सन
SR No.006258
Book TitleAdhunik Chikitsa Me Mudra Prayog Kyo Kab Kaise
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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