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________________ 38... आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे? पूर्वबद्ध कर्मों से आबद्ध एवं नये-नये कर्म का सिंचन करने के कारण निर्धारित समय के लिए पृथक्-पृथक् शरीर धारण करती है। टूटना-बिखरना-बिछुड़ना यह सब शरीर के आश्रित हैं आत्मा तो अनन्त शक्तिशाली है उसे विघटित करने की ताकत किसी में नहीं है इसलिए व्यक्ति को किसी भी प्रतिकूल स्थिति अथवा मृत्यु के निकट आने पर भयभीत नहीं होना चाहिए। निर्भीकता, चेतना की अन्तरंग शक्ति है। इस आत्म शक्ति का अहसास करने के लिए प्रस्तुत मुद्रा करते हैं। यह मुद्रा कुर्बानी, निडरता और साहस का प्रतीक है तथा यौगिक परम्परा के वाहकों द्वारा धारण की जाती है। विधि दोनों हाथों से ज्ञानमुद्रा बनायें। फिर दोनों हाथों को दोनों कंधों के आसपास इस तरह रखें कि हथेली का हिस्सा कंधों के समभाग में रहें, इस तरह अभय ज्ञान मुद्रा बनती है। निर्देश- यह मुद्रा खड़े या बैठे किसी भी उचित स्थिति में 15 से 20 मिनट की जानी चाहिए। सुपरिणाम इस मुद्राभ्यास से ज्ञान मुद्रा के सभी प्रभाव उत्पन्न होते हैं। इसी के साथ निर्भय गुण विकसित होता है। • भावनात्मक स्तर पर साहस, धैर्यता एवं आत्मविश्वास का संचार होता है। आज के तनावग्रस्त जीवन में नब्बे प्रतिशत बीमारियों का कारण भावनात्मक असंतुलन है। इस प्रकार के असंतुलन में यह मुद्रा निःसन्देह बहुत लाभदायक है। • शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा का दीर्घकाल तक प्रयोग करते रहने से मस्तिष्क और हृदय दोनों में लाभदायक परिवर्तन होते हैं। स्थायी रूप से मानसिक संताप एवं विक्षोभ दूर होता है। - • भौतिक स्तर पर यह मुद्रा क्रोध, कामुकता, अनेकाग्रता, अविश्वास, शंकालु वृत्ति, असन्तुष्टि, अहंकार, निष्क्रियता, घबराहट आदि का निवारण करती है। • आध्यात्मिक स्तर पर अप्रत्याशित रूप से निज स्वरूप की प्रतीति होने लगती है। इससे भी बढ़कर अभ्यासी साधक किसी भी प्रकार की मुसीबत अथवा भय से आक्रान्त नहीं होता। प्राचीन युग में वनों में रहने वाले ऋषि-मुनि
SR No.006258
Book TitleAdhunik Chikitsa Me Mudra Prayog Kyo Kab Kaise
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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