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________________ गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियों ...443 विधि इस मुद्रा में दायीं हथेली मध्यभाग की तरफ तर्जनी और कनिष्ठिका ऊर्ध्वप्रसरित, मध्यमा और अनामिका हथेली में मुड़ी हुई, अंगूठा भी हथेली में मुड़ा हुआ, इसका अग्रभाग मध्यमा के प्रथम जोड़ पर स्पर्श करता हुआ रहे। बायां अंगूठा दायें से फैली हुई कनिष्ठिका को पकड़े हुए, तर्जनी फैली हुई, दूसरी तर्जनी के आंतरिक भाग को स्पर्श करती हुई तथा मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका हथेली में मुड़ी रहती है तब विद्या मुद्रा बनती है।132 विधा मुद्रा सुपरिणाम . • पृथ्वी, आकाश एवं जल तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा शरीर को स्वस्थ, मजबूत एवं तंदरूस्त बनाती है। • मूलाधार, स्वाधिष्ठान एवं आज्ञा चक्र को जागृत करते हुए यह मुद्रा सूक्ष्म विद्युत प्रवाह का उत्पादन कर ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण करती है। अतिन्द्रिय ज्ञान आदि को प्रकट करती है। • शक्ति, स्वास्थ्य एवं दर्शन केन्द्र को जागृत करते हुए यह मुद्रा साधना में सहायक बनती है, कामवृत्तियों का नियंत्रण एवं परिशोधन करती है। शारीरिक ऊर्जा एवं जैविक विद्यत का संचय करती है। विकास को सहज एवं सरल बनाती है। • प्रजनन एवं पीयूष ग्रन्थि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा शरीर की
SR No.006256
Book TitleBauddh Parampara Me Prachalit Mudraoka Rahasyatmak parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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