SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियाँ ...331 विधि हथेलियों को मध्यभाग में योजित करें, अंगूठों को बाह्य किनारियों से मिलायें, अंगुलियों को अन्दर की तरफ अन्तर्ग्रथित करें, फिर हाथों को नीचे की तरफ घुमायें जिससे अंगुलियाँ धरती की तरफ हो जायें, उसे दै-कै-इन् मुद्रा कहते हैं।26 सुपरिणाम • यह मुद्रा वायु एवं आकाश तत्त्व को संतुलित कर हृदय, फेफड़ें, गुर्दे से सम्बन्धित रोगों का उपशमन करती है तथा विजातीय द्रव्यों का परिहार करती है। • अनाहत एवं सहस्रार चक्र को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा मस्तिष्क में मेरूजल का संचालन कर कामवासनाओं को नियंत्रित करती है। ग्रंथियों के संचालन में सहायक बनती है। असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति करवाती है। • ज्ञान एवं आनंद केन्द्र को जागृत कर यह मुद्रा चैतन्य जागरण, नाड़ीग्रन्थि संस्थान का नियमन एवं इन्द्रिय संवेदन की अनुभूति करवाती है तथा ईर्ष्या, घृणा, भय आदि के भावों का शमन कर निर्मल भावों का जागरण करती है। 27. दै-ये-तो-नो-इन् मुद्रा इस मुद्रा का अर्थ है महाज्ञान की तलवार। सम्यकज्ञान रूपी तलवार से मिथ्यात्व रूपी शत्रुओं का नाश आसानी से किया जा सकता है अत: यह मुद्रा पापों से बचने एवं उनके विनाश की सूचक है। यह संयुक्त मुद्रा गर्भधातु मण्डल, वज्रधातु मण्डल आदि क्रियाओं में धारण की जाती है। विधि हथेलियों के गद्दी के स्थानों को परस्पर में मिलाएं, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को अग्रभागों से अन्तर्ग्रथित करें, दोनों हाथों के मध्य रिक्त स्थान रहें, तर्जनी दूसरे जोड़ से झुकती हुई अपने अग्रभागों से अंगूठों के अग्रभागों का स्पर्श करें तथा अंगूठे सीधे रहें, इस भाँति 'दै-ये-तो-नो-इन्' मुद्रा बनती है।27 सुपरिणाम • यह मुद्रा अग्नि एवं पृथ्वी तत्त्वों को संतुलित करती है। इससे शरीर में जोश, स्फूर्ति, उष्णता, शक्ति आदि का वर्धन होता है।
SR No.006256
Book TitleBauddh Parampara Me Prachalit Mudraoka Rahasyatmak parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy