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________________ 300... बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक परिशीलन यहाँ अचल अग्नि से तात्पर्य होम आदि के समय हवनकुंड में लगाई जाने वाली अग्नि से होना चाहिए, जिसे वातावरण की पवित्रता हेतु प्रकट किया जाता है। विधि दोनों हथेलियों को आमने-सामने रखकर अंगूठों को हथेली में मोड़ें, तर्जनी को छोड़कर शेष तीन अंगुलियों को अंगूठों के ऊपर मोड़ें, तर्जनी के अग्रभागों को मिलायें तथा कनिष्ठिकाओं का दूसरा पोर परस्पर स्पर्श करते हुए रहें। इस तरह अचल-अग्नि मुद्रा बनती है।' सुपरिणाम • अचल-अग्नि मुद्रा का प्रयोग जल और आकाश तत्त्व को संतुलित करता है। यह हृदय में रक्त संचरण की क्रिया को सुचारू, रक्त विकारों को दूर, हृदय रोग को उपशान्त एवं शीतलता की अनुभूति करवाती है। • आज्ञा एवं स्वाधिष्ठान चक्र को जागृत कर यह मुद्रा वायु एवं आकाश तत्त्व का नियमन करती है तथा शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास में सहायक बनती है। • दर्शन एवं स्वास्थ्य केन्द्र को सक्रिय करते हुए यह मुद्रा असंयम, आसक्ति, कषाय, उत्तेजना आदि का उपशमन कर शरीर, मन और भावनाओं को स्वस्थ बनाती है। 2. अग्नि चक्र मुद्रा यह एक तान्त्रिक मुद्रा है जिसे जापानी बौद्ध परम्परा के भक्त या पुजारी द्वारा गर्भधातु मण्डल एवं धार्मिक क्रियाओं में धारण की जाती है। योग साधना के अनुसार हमारे शरीर के भीतर छ: चक्रों में से एक अग्नि चक्र (मणिपुर चक्र) है। संभवत: यह मुद्रा अग्नि चक्र को जागृत करने के उद्देश्य से की जाती है। विधि दोनों हथेलियों को एक-दूसरे के अभिमुख करते हुए मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को हथेली के भीतर मोड़ें, अंगूठों का ऊपरी भाग मध्यमा अंगुली के बीच के मुड़े हुए पोर को स्पर्श करता हुआ रहें, मुड़ी हुई तीनों अंगुलियों के नीचे के पोर दूसरे हाथ के पोर से स्पर्श करते हुए रहें तथा दोनों तर्जनियों के अग्रभाग परस्पर स्पर्शित रहने पर अग्नि-चक्र मुद्रा बनती है।2
SR No.006256
Book TitleBauddh Parampara Me Prachalit Mudraoka Rahasyatmak parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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