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________________ जापानी बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक स्वरूप ...187 हुई तथा कनिष्ठिका ऊपर की ओर जाती हुई रहना, 'अभिद-बुत्सु-सेप्पौ-इन्' मुद्रा है।11 इसमें दोनों हाथों को निकट रखा जाता है। सुपरिणाम • इस मुद्रा को धारण करने से जल एवं आकाश तत्त्व का संतुलन होता है। इससे शारीरिक रूखापन एवं रक्तादि विकार दूर होते हैं। • यह मुद्रा सहस्रार एवं स्वाधिष्ठान चक्र को जागृत करते हुए संशय-विकल्प आदि को शान्त कर यथार्थ ज्ञान को उपलब्ध करवाती है। मस्तिष्क में मेरुजल का संचालन कर कामेच्छाओं पर नियंत्रण करती है। • स्वास्थ्य एवं ज्ञान केन्द्र को जागृत करते हुए काम ग्रंथियों के माध्यम से सम्पूर्ण स्वास्थ्य का नियमन करती है तथा अन्य केन्द्रों के विकास को सुगम बनाती है। • एक्युप्रेशर प्रणाली के अनुसार यह मुद्रा शरीर स्थित जल सोडियम, पोटेशियम आदि का संतुलन एवं अन्य समस्त ग्रंथियों का सम्यक संचालन करती है और ज्ञान ग्रंथियों को जागृत कर महाज्ञानी एवं महागुणी बनाती है। 10. अभिद-बुत्सु-सेप्पो-इन् मुद्रा-2 इस मुद्रा के छ: प्रकारान्तर हैं। यह दूसरा प्रकार मध्यम वर्ग की मध्यम श्रेणी के लिए है। शेष वर्णन पूर्ववत समझें। विधि ___हथेलियों को बाहर की तरफ करते हुए अंगूठा और मध्यमा के प्रथम पोर को मिलायें, तर्जनी और अनामिका को किंचित हथेली की तरफ मोड़ें, कनिष्ठिका ऊपर की ओर रहें तथा दोनों हाथों का समीप रहना, अभिद-बुत्सुसेप्पौ-इन् मुद्रा कहलाती है।12 सुपरिणाम • इस मुद्रा के द्वारा वायु तत्त्व संतुलित होता है। प्राण वायु स्थिर होती है। हृदय एवं रक्त अभिसंचरण की क्रिया नियंत्रित होती है। मानसिक शक्ति एवं स्मरण शक्ति का पोषण होता है। • यह मुद्रा विशुद्धि एवं अनाहत चक्र को जागृत कर शरीर में ऊर्जा का उत्पादन करती है तथा मुद्रा धारक को महाज्ञानी, शोकहीन, शान्त चित्त, निरोगी, दीर्घजीवी बनाती है। इससे वक्तृत्व, कवित्व, लेखन आदि कलाओं में भी दक्षता आती है। • यह मुद्रा आनंद एवं विशुद्धि
SR No.006256
Book TitleBauddh Parampara Me Prachalit Mudraoka Rahasyatmak parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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