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________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...327 अर्ह मुद्रा में जिस तरह की आकृति बनाई जाती है उससे शरीर के द्वारा भी इस प्रकार के संवेदन महसूस किये जाते हैं कि व्यक्ति अन्तर्मुखी हुये बिना रह नहीं सकता। ___ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं विधि पूर्वनिर्दिष्ट नियम के अनुसार शरीर को स्थिर करें। फिर हृदय के मध्य दोनों हाथ मिलाकर नमस्कार की स्थिति में आएँ। फिर 'ॐ हीं नमो अरिहंताणं' इस मन्त्र पद का तीन बार उच्चारण करें। तदनन्तर श्वास को भरते हुए नमस्कार मुद्रा की स्थिति में ही दोनों हाथों को कान का स्पर्श हो सके इतना ऊँचा उठायें। फिर उस स्थिति में थोड़ी देर श्वास रोकें। पश्चात धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हुए नमस्कार मुद्रा में ही हाथों को आनन्द केन्द्र पर ले आना अर्ह मुद्रा है। सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से इस मुद्रा में अंगुलियाँ, हथेलियाँ, मणिबंध, कुहनी और स्कन्ध पर हल्का सा दबाव पड़ने के कारण वे स्वस्थ और शक्तिशाली बनते हैं। इससे पेट, सीना, पसलियाँ और मेरूदण्ड पर खिंचाव होने के कारण ये अंग भी सशक्त और सक्रिय होते हैं। • शरीर तन्त्र की सक्रियता से जड़ता और आलस्य दूर होकर नई स्फूर्ति का अनुभव होता है। • एड्रीनल और थाइमस ग्रन्थियों के स्राव परिवर्तित हो संतुलन की स्थिति में आ जाते हैं। पूरे शरीर में सूक्ष्म प्रकंपन होने से विजातीय द्रव्यों का विसर्जन होता है। • मानसिक दृष्टि से चित्त का सन्तुलन होता है और अनावश्यक विकल्प दूर होते हैं। . अध्यात्म दृष्टि से अर्हत भाव जागृत होता है। जैन दृष्टि से हर आत्मा में अनेक अर्हताएँ (आत्मिक योग्यताएँ) है किन्तु संसार दशा में प्राय: सुप्त रहती है। इसलिए व्यक्ति सब कुछ जानकर भी बेहोशी में जीता है, मूर्छा में डूबा रहता है। अहँ मुद्रा से मूर्छा टूटती है और वीतरागता प्रकट होती है। जहाँ व्यक्ति का लक्ष्य वीतरागमय हो, वहाँ वह अनुकूल-प्रतिकूल, सुख
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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