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________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...305 प्रतिष्ठा के समय दुष्ट देवों को प्रतिबंधित करने, दुष्ट शक्तियों का निग्रह करने, दुष्ट आत्माओं को वश में करने और सर्प भय का निवारण करने के प्रयोजन से यह मुद्रा की जाती है। इसका बीज मन्त्र ‘औ' है। विधि ___ "परस्परोन्मुखौ मणिबन्धाभिमुख कर शाखौ करौ कृत्वा ततो दक्षिणांगुष्ठकनिष्ठिकाभ्यां वाममध्यमाऽनामिके तर्जनीं च तथा वामांगुष्ठकनिष्ठिकाभ्यामितरस्य मध्यमाऽनामिके तर्जनीं समाक्रामयेदिति महानागपाश मुद्रा।" एक-दूसरे से विमुख दोनों हाथों की अंगुलियों को मणिबन्ध के अभिमुख करें। फिर दायें हाथ के अंगूठे और कनिष्ठिका से बायें हाथ की मध्यमा, अनामिका और तर्जनी को आक्रमित करें तथा बायें हाथ के अंगूठे और कनिष्ठिका से दायें हाथ की मध्यमा, अनामिका और तर्जनी को अच्छी तरह आक्रमित करने पर महानागपाश मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • चक्र विशेषज्ञों के अनुसार महानागपाश मुद्रा की साधना करने से स्वाधिष्ठान, अनाहत एवं आज्ञा चक्र जागृत होते हैं। इनके जागरण से मन शांत होता है। ईर्ष्या, राग-द्वेष में कमी होती है। शरीर कांतिवान एवं वाणी प्रखर बनती है। विचारों के संप्रेषण में दक्षता प्राप्त होती है। • दैहिक दृष्टि से यह मानसिक एवं मस्तिष्क के रोगों का निवारण करती है। शरीर निरोगी बनता है और हृदय रोग, दमा, मानसिक अस्थिरता आदि का शमन होता है। • जल, वायु एवं आकाश तत्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा प्रजनन, रक्तसंचरण, मस्तिष्क के कार्यों को नियमित रखती है। प्राण धारण एवं उसके सुनियोजन में तथा आन्तरिक आनंद की प्राप्ति में सहायक बनती है। • प्रजनन, थायमस एवं पीयूष ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा शैशव अवस्था में बालकों के विकास एवं कामेच्छा के नियंत्रण में सहायक बनती है। शरीर की आन्तरिक हलन-चलन, हृदय की धड़कन, राग-द्वेष आदि का संतुलन करते हुए साधक को प्रसन्न रखती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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