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________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...289 सुपरिणाम • वापी मुद्रा की साधना करने से स्वाधिष्ठान एवं सहस्रार चक्र जागृत होते हैं। यह मुद्रा ज्ञानावरणी कर्म का क्षयोपशम करते हुए प्रतिकूलताओं में समभाव उत्पन्न करती है। • यह मुद्रा मस्तिष्क की समस्याएँ, अंतःस्रावी तंत्र सम्बन्धी समस्याएँ, पुरानी बीमारी, खून की कमी, बिस्तर गीला होना, नपुंसकता, कामुकता आदि को कम करती है। मासिक धर्म की अनियमितता, योनि विकार, प्रजनन अंगों में विकार आदि को भी दूर करती है । • जल एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा मल-मूत्र, गुर्दे, मस्तिष्क, आँख आदि के विकारों का शमन करती है। सत्य स्वीकार एवं भावों में प्रवाहत्मकता लाती है। • प्रजनन एवं पीनियल ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा चेहरे के आकर्षण, तेज एवं व्यक्तित्व को प्रभावी बनाती है। नेतृत्व नियंत्रण एवं निर्णयात्मक शक्ति में विकास करती है। 41. कुंभ मुद्रा इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्रा नं. 2 के समान है। उपलब्ध प्रति के अनुसार यह कुंभ मुद्रा अक्षत खजाने के समान है। इसका प्रयोग गृह भवन में कुंभ स्थापना करते समय और बंदीजनों को मुक्त करते समय किया जाना चाहिए। इस मुद्रा का बीज मन्त्र 'फ' है। 42. अपरकुंभ मुद्रा कुम्भ मुद्रा के तीन प्रकारान्तर हैं। उनमें द्वितीय प्रकार की कुंभ मुद्रा प्रासाद निर्माण, सामान्य जिनालय निर्माण, पौषधशाला निर्माण के निमित्त शिलान्यास के अवसर पर की जाती है। इसका बीज मन्त्र 'फ' है। विधि " पार्ष्णिभ्यां संपुटीकृत्य कूर्म्माकारौ पादौ विधाय मध्ये विवरं क्रियते अपरकुंभ मुद्रा । " एड़ियों के द्वारा संपुट बनाकर पैरों को कूर्माकार में करते हुए, मध्य भाग में अन्तराल रखने पर अपरकुंभ मुद्रा बनती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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