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________________ 266... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा विधि अमृत सञ्जीवनी मुद्रा "उभयकरांगुली ग्रथने मध्ये कुंभाकारं कृत्वांगुष्ठयोर्ध्वकरणे नाशिकाद्वारे विन्यस्य पवन लिहनं क्रियते अमृतसञ्जीवनी मुद्रा । " दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर गूंथते हुए मध्य भाग को कुंभाकार में करें, दोनों अंगूठों को ऊर्ध्वाभिमुख करते हुए उन्हें नासिका द्वार पर रखें तथा श्वासोश्वास को थोड़ा-थोड़ा चखने का कार्य करते रहने की क्रिया अमृत संजीवनी मुद्रा कहलाती है। सुपरिणाम • अमृत संजीवनी मुद्रा को धारण करने से आज्ञा, सहस्रार एवं अनाहत चक्र सक्रिय होते हैं। यह मुद्रा प्रेम, दयालुता, परोपकार, कलात्मकता आदि गुणों में वृद्धि करती है। • शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा मस्तिष्क की क्रियाओं को संयोजित करते हुए अनिद्रा, थकावट, सिरदर्द, मानसिक अस्थिरता, दमा, हृदय, छाती, आदि से सम्बन्धित रोगों को दूर करती है । श्वास.
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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