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________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...257 विधि "मशीतमुद्रावन्मध्यमाद्वयं ऊर्वीकृत्य तर्जनीद्वयस्यात्मसंमुखीकरण अंगुष्ठद्वय तर्जनीद्वय नखा एकत्र मीलने कल्याण मुद्रा।" मशीतमुद्रा के समान दोनों मध्यमाओं को ऊपर की ओर करते हुए दोनों तर्जनियों को स्वयं के सम्मुख करें। फिर दोनों अंगूठों और दोनों तर्जनियों को नख भाग से परस्पर सम्मिलित करने पर कल्याणत्रय मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • मुद्रा विचार में वर्णित कल्याण मुद्रा का प्रयोग करने से मूलाधार, अनाहत एवं मणिपुर चक्र जागृत होते हैं। यह मुद्रा ऊर्जा का उत्पादन करते हुए परमानंद की प्राप्ति करवाती है। इसी के साथ संकल्प बल, पराक्रम एवं आत्मविश्वास का जागरण करती है। • शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा कैन्सर, कोष्ठबद्धता, जोड़ों-घुटनों की समस्या, एलर्जी, बुखार, श्वास, छाती, हृदय आदि की समस्या में विशेष लाभ करती है। • पृथ्वी, अग्नि एवं वायु तत्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा पाचन एवं रक्त संचरण में विशेष रूप से सहायक बनती है। इस मुद्रा से प्रतिकूलताओं से लड़ने एवं परिस्थिति स्वीकार की क्षमता उत्पन्न होती है। इससे विचारों में स्थिरता आती है तथा ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है। 17. सामान्य जिनालय मुद्रा इस मुद्रा के माध्यम से सामान्य जिनालय की प्रतिकृति उजागर की जाती है, अत: इसका नाम सामान्य जिनालय मुद्रा है। . यह मुद्रा सामान्य गृह चैत्य की स्थापना और सामान्य जिनालय की प्रतिष्ठादि के अवसर पर की जाती है। इस मुद्रा का मुख्य उद्देश्य साधारण रूप से निर्मित गृह चैत्य और संघ चैत्य को स्थैर्यत्व प्रदान करना है। इस मुद्रा का बीज मन्त्र 'ओ' है। विधि "हस्तद्वयस्य कनिष्ठिकाऽनामिकामध्यमानां सर्पफणावत्करणे सामान्य जिनालय मुद्रा।"
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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