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________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...253 विधि ___"कर द्वयस्य मध्यमयोः ऊर्वीकरणे मशीतवत् तदुपरि तर्जन्योः संस्थापने त्रिद्वार जिनालय मुद्रा।" ____दोनों हाथों की मध्यमाओं को ऊर्ध्वाभिमुख करते हुए उसके ऊपर दोनों तर्जनियों को मशीतवत संस्थापित करने पर त्रिद्वार जिनालय मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • त्रिद्वार जिनालय मुद्रा को धारण करने से मणिपुर एवं सहस्रार चक्र जागृत होते हैं। यह मुद्रा उन्मत्तता, भय, अस्थिरता, अविश्वास, क्रोधादि कषाय, अनुत्साह आदि को कम करते हुए आत्मविश्वास, सहनियंत्रण एवं जागरुकता को लाती है। • भौतिक स्तर पर यह मुद्रा पाचन तंत्र, चयापचय, लीवर, पित्ताशय, मधुमेह, मस्तिष्क सम्बन्धी रोग, अल्सर, त्वचा रोग आदि में उपयोगी है। • अग्नि एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण कर आन्तरिक आत्मानंद की प्राप्ति करवाती है। • एड्रिनल ग्रंथि के स्राव को सक्रिय करते हुए यह मुद्रा संचार व्यवस्था, हलन-चलन, श्वसन, रक्त परिभ्रमण, पाचन, अनावश्यक पदार्थों के निष्कासन में विशेष उपयोगी है। 14 स्वस्तिक मुद्रा स्वस्तिक एक प्रकार का मंगल चिह्न है। प्राचीन समय में शुभ अवसरों पर दीवारों आदि पर इस चिह्न को अंकित किया जाता था। संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार स्वस्ति शब्द कल्याण सूचक है। यह ‘स्वस्ति शुभाय हितं क' इस अर्थ को प्रकट करता है। यह मुद्रा कल्याणप्रद वातावरण को निर्मित करने के प्रसंग में की जाती है। ___ ज्ञात सूत्रों के अनुसार इस मुद्रा का उपयोग शकुन देखने और प्रतिष्ठादि कार्यों को निर्विघ्न संपन्न करने के अवसर पर होता है। विधि "दक्षिणकरमध्यमोपरि वाममध्यमां कृत्वा मध्यमयोस्तयोरग्रे तर्जनीद्वयपरस्परयोगो तयोर्मूले अंगुष्ठद्वय संस्थापने स्वस्तिक मुद्रा।"
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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