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________________ आचारदिनकर में उल्लिखित मुद्रा विधियों का रहस्यपूर्ण विश्लेषण ...197 वह आरती कहलाती है। जहाँ राग होता है वहीं द्वेष जन्मता है। इसलिए बोलते वक्त 'राग-द्वेष' इस क्रम से ही कहा जाता है न कि द्वेष-राग। जब राग-द्वेष की परम्परा का उन्मूलन होता है तब मिथ्या भासित प्रकाश सत्य स्वरूप में उपस्थित होता है और आत्मा परमात्म स्वरूप को साध्य मानकर उसकी उपासना में प्रवृत्त होती है तथा अबाधित लक्ष्य को उपलब्ध करती है। ___ इस मुद्रा के माध्यम से अरिहंत भगवान का आदर-सत्कार किया जाता है जिससे साधक भी तदयोग्य बन सकें। विधि "करद्वयाङ्गुल्योः परस्परमीलितयोः पञ्चसु स्थानेषु शिखावत्स्थापनं आरात्रिक मुद्रा।" ____ दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाकर शिखा के समान पाँच स्थानों पर स्थापित करना आरात्रिक मुद्रा है। सुपरिणाम • शारीरिक स्तर पर नमस्कार मुद्रा से होने वाले सभी लाभ इसमें मिलते हैं जैसे कि एलर्जी, दमा, सिरदर्द, पागलपन, अनिद्रा, कानों का संक्रमण, हृदय रोग, छाती में दर्द आदि को यह मुद्रा कम करती है। वायु एवं आकाश तत्त्व को संतुलित कर यह मुद्रा हृदय, श्वसन एवं मस्तिष्क सम्बन्धी समस्याओं का शमन करती है। प्राण धारण एवं इसके सुनियोजन में सहायक बनती है। इससे व्यष्टि सत्ता समष्टि चेतना का सम्बन्ध जुड़ जाता है। वायु जनित रोगों का शमन होता है। मन स्वस्थ एवं सक्रिय बना रहता है। • आध्यात्मिक स्तर पर विवेक चेतना का जागरण होता है। अवचेतन मन से सम्पर्क स्थापित होता है। अनाहत एवं आज्ञा चक्रों पर स्थित ऊर्जा का उत्पादन होता है तथा कलात्मक उमंगों, रसानुभूति, कोमल संवेदना, उदारता, सहकारिता, परोपकार, करुणा आदि की भावना जागृत होती है। इससे दिमाग शांत, एकाग्र एवं स्थिर बनता है। पूज्यों के प्रति आस्था का दीपक प्रगटता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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