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________________ 176... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा विशेष • एक्यूप्रेशर पद्धति में इस मुद्रा का दाब बिन्दु वात रोग के शमन हेतु उपयोगी माना गया है। • यह दृष्टिदोष तथा कर्णदोष का निवारण करती है। • मस्तिष्क रोग, गर्दन दर्द, संक्रमण के कारण छींक आना, नाक से पानी बहना, आधा शरीर का लकवा, अनिद्रा, उच्च रक्त चाप जैसी बीमारियाँ ठीक होती हैं। • पीयूष एवं एड्रीनल ग्रंथियों को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास करती है। साहस, निर्भयता, सहनशीलता, आत्मविश्वास आदि गुणों का सर्जन करती है। इसी के साथ तनावमुक्ति, जीवन निर्माण एवं व्यवहार नियंत्रण में विशेष सहायक बनती है। 70. आसन मुद्रा आसन स्थिरता का प्रतीक है। योग प्रधान ग्रन्थों में आसन की परिभाषा बताते हुए कहा है 'स्थिरमासनम्' अर्थात स्थिरता ही आसन है। आसन के दो रूप हैं- बाह्य और अन्तरंग। काया का स्थिर रहना एवं वाणी का मौन रहना बाह्य आसन है तथा मनोवृत्तियों का शान्त होना अन्तरंग आसन है। जब कायिक प्रवृत्तियाँ रुकती हैं तब अन्तर्द्वन्द्व भी समाप्त होने लगते हैं और उस स्थिति में ध्यान का जन्म होता है। ___आसन मुद्रा में हाथों की जो स्थिति बनती है, ध्यान मुद्रा में भी लगभग उसी तरह की अवस्था रहती है। तीर्थंकर की प्रतिमाएँ भी इसी तरह की मुद्रा में देखी जाती है। इस आधार पर आसन मुद्रा को ध्यान मुद्रा और वीतराग मुद्रा भी कह सकते हैं। __प्रतिष्ठा प्रसंग पर यह मुद्रा साधक को निज स्वरूप की प्रतीति हो इस उद्देश्य से दिखायी जाती है। वस्तुत: आसन मुद्रा वीतरागत्व प्राप्ति की मुद्रा है। इस मुद्रा से वीतरागमय भावों का पोषण होता है। विधि "अंजल्याकारहस्तस्योपरिहस्त आसन मुद्रा।" दोनों हाथों को अंजलि आकार में करते हुए एक के ऊपर दूसरा हाथ रखना आसन मुद्रा है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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