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________________ 174... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा व्याकुलता आदि का शमन होता है। • मानसिक स्तर पर यह मुद्रा स्मरणशक्ति को बढ़ाती है। मानसिक तनाव के कारण होने वाले दुष्प्रभावों को दूर कर ज्ञान तंतुओं को सबल बनाती है। इससे मन शान्त एवं मुखमण्डल सदा प्रसन्न रहता है। • आध्यात्मिक स्तर पर साधक के ज्ञान नेत्र उद्घाटित होते हैं। इस मुद्रा से मूलाधार चक्र जागरुक स्थिति को प्राप्त करता है, जिसके फलस्वरूप वीरता का भाव उत्पन्न होता है और आनन्द की अनुभूति होती है। विशेष • एक्यूप्रेशर मेरिडियन थेरेपी के अनुसार इस मुद्रा के द्वारा आज्ञा चक्र पर दबाव पड़ता है। इससे भाव जगत उच्चस्तरीय विचारों से अभिभूत हो उठता है एवं कषायादि प्रवृत्तियाँ मन्द हो जाती हैं। • यह मुद्रा वात दोष और कफ दोष का भी निवारण करती है। 69. मंगल मुद्रा ___मंगल शब्द सामान्यतया मंगल अर्थ को ही प्रकाशित करता है। शब्द विच्छेद के आधार पर विश्लेषण करें तो मम् अहं या मेरापन, गल नष्ट हो जाना अर्थात अहंकार का नष्ट होना मंगल कहलाता है। यह मुद्रा प्रतिष्ठा प्रसंग पर दिखायी जाती है। प्रतिष्ठा एक महा मंगलकारी अनुष्ठान है। अभिप्रायत: मंगल मुद्रा के द्वारा मंगलमय वातावरण निर्मित किया जाता है। दूसरे अभिप्राय से जिनमूर्ति स्वयं मंगल रूप होती है। मूर्ति के दर्शन मात्र से अमंगल दूर हो जाते हैं और जीवन मंगलकारी बनता है। अत: मूर्ति के मांगल्यत्व को सूचित करने के उद्देश्य से भी यह मुद्रा दिखायी जा सकती है। विधि ___"हस्ताभ्यां संपुटं कृत्वा अंगुलीः पत्रवद्विकास्य मध्यमे परस्परं संयोज्य तन्मूललग्नावंगुष्ठौ कारयेदिति मंगल मुद्रा।" । ____दोनों हाथों को संपुटमय बनाकर अंगुलियों को पत्ते के समान विकसित करें, फिर मध्यमा अंगुलियों को परस्पर में संयोजित कर उन दोनों के मूल भाग पर अंगूठों को स्थिर करने से मंगल मुद्रा बनती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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