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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......163 सन्ध्याकालीन प्रतिक्रमण करते वक्त क्षेत्रदेवता की आराधना के निमित्त कायोत्सर्ग करते हैं। योगिनी मुद्रा में निर्दिष्ट वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि क्षेत्रपाल देव सम्यक्त्वी होते हैं और सदनुष्ठानों में सहयोग करते हैं। प्रतिष्ठा के प्रसंग पर इस मुद्रा को दिखाने का ध्येय यह है कि इससे जिनालय परिसर के अधिष्ठायक देव प्रसन्न रहें तथा उस क्षेत्र की रक्षा करने हेतु सदैव तत्पर रहें। तत्स्थानीय देवों को अपने कर्तव्य की स्मृति दिलाने के उद्देश्य से भी क्षेत्रपाल मुद्रा की जाती है। विधि ___"ऊर्ध्वशाखं वामपाणिं कृत्वाऽङ्गुष्ठेन कनिष्ठिकामाक्रमयेदिति क्षेत्रपालमुद्रा।" बायें हाथ की अंगुलियों को ऊर्ध्व प्रसरित करते हुए अंगूठे के द्वारा कनिष्ठिका को आक्रमित करने पर क्षेत्रपाल मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा रक्त की शुद्धि करते हुए त्वचा को मुलायम बनाती है और चर्म रोगों में आराम देती है। इस मुद्रा के दीर्घ प्रयोग से शरीर में जल तत्त्व घटता है तथा जल तत्त्व की अधिकता से होने वाले रोग जैसे सूजन, जलोदर आदि दूर हो जाते हैं। • शरीर की दुर्बलता और विचारों की कठोरता दूर होती है। श्वासनली स्वस्थ रहती है। इससे वायु तत्त्व सम्बन्धी तकलीफों में भी राहत मिलती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा साधक की साधना को सफल बनाकर उसे मान- सम्मान एवं प्रतिष्ठा दिलाती है। . इससे उदार भावना का विकास होता है। सूक्ष्म तत्त्व का साक्षात्कार होता है। यह मुद्रा अनाहत चक्र को जागृत करने में सहयोग करती है। इस चक्र के जाग्रत होने पर साधक में अद्भुत कवित्वशक्ति और वासिद्धि प्राप्त होती है। विशेष • एक्यूप्रेशर रिफ्लेक्सोलोजी के अनुसार यह मुद्रा मानसिक अवसाद, बौद्धिक क्षमता में कमी, कार्य में मन का न जुटना आदि दोषों का निवारण करती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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