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________________ 144... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा है। इस मुद्रा में अशुचि के उद्गम स्थानों को आत्मशक्तियों से प्रतिषिद्ध कर देते हैं जिसमें योनि सदृश आकार की संयोजना होती है। इसलिए इसे योनि मुद्रा कहते हैं। सार रूप में योनि मुद्रा बहिर्निसृत शक्ति प्रवाह को अन्तर्मुखी करने के उद्देश्य से की जाती है। विधि " वामहस्तांगुलि तर्जन्या कनिष्ठिकामाक्रम्य तर्जन्यनं मध्यमया कनिष्ठिकाग्रं पुनरनामिकया आकुंच्य मध्येऽङ्गुष्ठं निक्षेपेदिति योनिमुद्रा । ' " बाएं हाथ की तर्जनी अंगुली के द्वारा कनिष्ठिका अंगुली को आक्रमित करें। फिर तर्जनी के अग्रभाग को मध्यमा अंगुली के द्वारा तथा कनिष्ठिका के अग्रभाग को अनामिका अंगुली के द्वारा आकुंचित ( पकड़) कर मध्य भाग में अंगूठे को रखने से योनि मुद्रा बनती है । सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा शक्ति केन्द्र ( मूलाधार चक्र ) और स्वास्थ्य केन्द्र (स्वाधिष्ठान चक्र) को प्रभावित करती है। इससे उभय केन्द्रों का विकास सहज-सरल होता है। इसी के साथ जननेन्द्रिय का क्षेत्र सबल और सक्रिय होता है। इस मुद्राभ्यास से पृथ्वी एवं जल तत्त्व संतुलित अवस्था को प्राप्त करते हैं तथा तत्सम्बन्धी रोगों से मुक्ति मिलती है। • आध्यात्मिक स्तर पर इस मुद्रा के प्रभाव से बाह्य अनुराग मन्द होता है। साधक आभ्यन्तर वृत्तियों से परिचय करने में रुचि रखता है और विषयवासनाएँ धीरे-धीरे समाप्त होती हैं। विशेष • एक्यूप्रेशर चिकित्सा के अनुसार यदि गर्भ में पल रहा बच्चा उल्टा हो जाये तो उसे सीधाकर दर्द रहित प्रसव करवाने में यह मुद्रा अत्यन्त उपयोगी है । • यह मुद्रा सम्पूर्ण शरीर के ग्रन्थि स्राव को संतुलित करती है । • आँखों से पानी निकलना, शरीर की मांसपेशियों में खिंचाव, पिंडलियों की ऐंठन, लकवा, पैरों के तलवों में जलन आदि विकारों को दूर करती है। • शरीरस्थ कोलेस्ट्रोल एवं चर्बी को नियन्त्रित करती है तथा प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। • यह मुद्रा जलोदर रोग के उपचार में भी सहयोग करती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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