SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......137 अंग आदि के कार्यों का नियमन करती है। • मानसिक स्तर पर यह मुद्रा भीतरी चंचलता को शान्त कर कुंडलिनी शक्ति जागरण में सहायक बनती है। इससे मानसिक एकाग्रता, स्मरण शक्ति और प्रसन्नता बढ़ती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रवृत्त होता है । चेतना की क्षमता और ध्यान में प्रगति होती है । साधक की उच्च भावनाओं का परिपोषण होता है। मणिपुर एवं स्वाधिष्ठान चक्र के द्वारों को खुलने का मार्ग मिलता है। एड्रिनल, पैन्क्रियाज एवं प्रजनन ग्रंथियों के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा तनाव नियंत्रण, रक्तशर्करा एवं रक्त चाप का नियंत्रण, कामेच्छा का संतुलन और बालकों में रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास करती है। विशेष - • विद्युत एक्यूपंक्चर सिद्धान्त के अनुसार इस मुद्रा से कान की सुनने वाली नलिका की रक्षा होती है । दाँतों के उपचार हेतु यह मुद्रा महत्त्वपूर्ण है। इस मुद्रा से तालू टांसिल, स्वरयंत्र सम्बन्धी टांसिल, जीभ टांसिल का सम्यक् उपचार होता है। 50. जिन मुद्रा राग संस्कृत भाषा का 'जिन' शब्द विजेता का द्योतक है। जैन मान्यतानुसार ग-द्वेष को जीतने वाले तीर्थंकर पुरुष जिन कहलाते हैं। जैनागमों में जिन पुरुष को केवलज्ञानी, अरिहंत परमात्मा, तीर्थंकर आदि विशेषणों से भी सम्बोधित किया जाता है। जिनसे जैन शब्द की उत्पत्ति हुई है । 'जिन' का परिष्कृत रूप जैन है। जिन के आराधक जैन कहलाते हैं। जिन मुद्रा केवलज्ञान को सूचित करती है । प्रतिष्ठादि उत्सव के दौरान केवलज्ञान कल्याणक के अवसर पर यही मुद्रा दिखायी जाती है। इस मुद्रा के माध्यम से प्रतिमा पर उस तरह के भावों का आरोपण किया जाता है। उससे केवलज्ञान की समग्र विशेषताएँ प्रतिमा में स्थानान्तरित हो जाती हैं। मनोविज्ञान एवं आधुनिक उपचारों, जैसे हीलिंग, रेकी आदि से भी स्पष्टतः सिद्ध होता है कि चैतन्य शक्ति जड़तत्त्व को प्रभावित करती है तथा जड़ तत्त्व चैतन्य तत्त्व को आकर्षित करता है। इस सिद्धान्त से जिन मुद्रा का सूक्ष्मभाव प्रतिमा में चैतन्य गुणों को प्रकट करता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy